Portfolio Category: Sufism
Khwaja Bandanwaz Gesudraz
पैदाइश |
7 अगस्त 1321
दिल्ली, दिल्ली सल्तनत |
वफ़ात |
10 नवंबर 1422 (आयु वर्ग 101) |
जातीयता |
भारतीय |
युग |
इस्लामी स्वर्णयुग |
धर्म |
इस्लाम |
न्यायशास्र |
सुन्नी इस्लाम |
मुख्य रूचि |
सूफ़ीवाद |
E-Book
सय्यद वल शरीफ़ कमालुद्दीन बिन मुहम्मद बिन यूसुफ़ अल हुसैनी : जिन्हें आम तौर पर ख्वाजा बन्दा नवाज़ गेसू दराज़ कहते हैं। ( 7 अगस्त 1321, दिल्ली -10 नवंबर 1422, गुलबर्गा ) बंदा नवाज़ या गेसू दराज़ के नाम से जाना जाता है, चिश्ती तरीक़े के भारत से एक प्रसिद्ध सूफी संत थे, जिन्होंने समझ, सहिष्णुता की वकालत की, विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच सद्भावना पैदा की।
गेसू दराज़ दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी संत हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के एक मुरीद या शिष्य थे। चिराग देहलावी की मृत्यु के बाद, गेसू दराज़ ने उत्तराधिकारी (ख़लीफ़ा) के तौर पर गद्दा नशीन हुवे। जब वह दिल्ली पर तैमूर लंग के हमले के कारण 1400 के आस-पास दौलाबाद में चले गए, तो उन्होंने चिश्ती तरीके को दक्षिण भारत में परिचय किया और स्थापित भी। अंत में वह बहामनी सुल्तान, ताज उद-दीन फिरोज शाह के निमंत्रण पर गुलबर्गा में बस गए।
उनके नाम के साथ अबुल-फतह और गेसू दराज़ उनका खिताब था। विद्वानों और धर्मविदों में से वह शेख अबुल-फतह सदर उदीन मुहम्मद देहलावी थे, लेकिन लोगों ने उन्हें ख्वाजा बंदा नवाज़ गेसू दराज़ कहा।
वह हजरत अली के वंशज थे। उनके पूर्वज हेरात में रहते थे। उनमें से एक दिल्ली आये और यहां बस गए। उनके पिता हजरत सय्यद वल शरीफ़ मुहम्मद बिन यूसुफ़ का जन्म 4, रजब, 721 हिजरी में हुआ था। उनके पिता हजरत सैयद वल शरीफ़ यूसुफ बिन मुहम्मद अल हुसैनी एक पवित्र व्यक्ति थे और हजरत निज़ामुद्दीन औलिया को समर्पित थे।
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पैदाइश |
1253
पटियाली, कासगंज, उत्तर प्रदेश, भारत |
वफ़ात |
1324 |
शैली |
गज़ल, कव्वाली, रुबाई, तराना |
मुरीद |
हज़रत ख्वाज़ा निज़ामुद्दीन औलिया |
E-Book
अमीर ख़ुसरो का जन्म सन 1253 ई. में एटा (उत्तरप्रदेश) के पटियाली नामक क़स्बे में गंगा किनारे हुआ था। इनके पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। वे मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफ़ुद्दीन के पुत्र थे। लाचन जाति के तुर्क चंगेज़ ख़ाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (1266-1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत आकर बसे थे। हालाँकि अमीर ख़ुसरो का जन्म-स्थान काफ़ी विवादास्पद है। भारत में सबसे अधिक प्रसिद्ध यह है कि वे उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के ‘पटियाली’ नाम के स्थान पर पैदा हुए थे। कुछ लोगों ने गलती से ‘पटियाली’ को ‘पटियाला’ भी कर दिया है, यद्यपि पटियाला से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था, हाँ, पटियाली से अवश्य था। पटियाली के दूसरे नाम मोमिनपुर तथा मोमिनाबाद भी मिलते हैं।
विवाह तथा सन्तान
ख़ुसरो के विवाह के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु यह निश्चित है कि उनका विवाह हुआ था। उनकी पुस्तक ‘लैला मजनू’ से पता चलता है कि उनके एक पुत्री थी, जिसका तत्कालीन सामाजिक प्रवृत्ति के अनुसार उन्हें दुःख था। उन्होंने उक्त ग्रन्थ में अपनी पुत्री को सम्बोधित करके कहा है कि या तो तुम पैदा न होतीं या पैदा होतीं भी तो पुत्र रूप में। एक पुत्री के अतिरिक्त, उनके तीन पुत्र भी थे, जिनमें एक का नाम मलिक अहमद था। यह कवि था और सुल्तान फ़ीरोजशाह के दरबार से इसका सम्बन्ध था।
इनके तीन पुत्रों में अबुलहसन (अमीर खुसरो) सबसे बड़े थे – ४ बरस की उम्र में वे दिल्ली लाए गए। ८ बरस की उम्र में वे प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बने। १६-१७ साल की उम्र में वे अमीरों के घर शायरी पढ़ने लगे थे। एक बार दिल्ली के एक मुशायरे में बलबन के भतीजे सुल्तान मुहम्मद को ख़ुसरो की शायरी बहुत पसंद आई और वो इन्हें अपने साथ मुल्तान (आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब) ले गया। सुल्तान मुहम्मद ख़ुद भी एक अच्छा शायर था – उसने खुसरो को एक अच्छा ओहदा दिया। मसनवी लिखवाई जिसमें २० हज़ार शेर थे – ध्यान रहे कि इसी समय मध्यतुर्की में शायद दुनिया के आजतक के सबसे श्रेष्ठ शायर मौलाना रूमी भी एक मसनवी लिख रहे थे या लिख चुके थे।
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उपाधि |
मेवलावी, मौलवी |
पैदाइश |
30 सितम्बर 1207
बल्ख,या वख्श, |
वफ़ात |
17 दिसम्बर 1273 (आयु 66)
कोन्या, रूमी सल्तनत |
कब्र स्थल |
मौलाना रूमी का मक़बरा, मौलाना म्यूजियम, कोन्या, तुर्की |
जातीयता |
पर्शियन |
युग |
इस्लामी स्वर्ण युग |
मुरीद |
शम्स तबरेज़ी |
धर्म |
इस्लाम |
सम्प्रदाय |
सुन्नी |
न्यायशास्र |
हनफ़ी |
मुख्य रूचि |
सूफ़ी कविता, हनफ़ी न्यायशास्त्र |
उल्लेखनीय कार्य |
सूफ़ी नृत्य, मराक़बा |
उल्लेखनीय कार्य |
मसनवी-ए मनावी, दीवान-ए शम्स-ए तबरीज़ी |
E-Book
मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी का जन्म फारस देश के प्रसिद्ध नगर बल्ख़ में सन् 604 हिजरी में हुआ था। इनकी मसनवी को क़ुरआनी पहलवी भी कहते हैं. इसमें 26600 दो-पदी छंद हैं , कहा जाता है कि निशापुर में इनकी भेंट प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार से भी हुई थी. फ़रीदुद्दीन अत्तार ने इन्हें अपनी इलाहीनामा की एक प्रति भेंट भी की थी. रूमी की दो शादियाँ हुईं, जिनसे इन्हें दो बेटे और एक बेटी पैदा हुई थी. विनफ़ील्ड के अनुसार रहस्यवाद में रूमी की बराबरी कोई नहीं कर सकता. रूमी शम्स तबरेज़ को अपना मुर्शिद मानते थे और उनकी रहस्यमयी मृत्यु के बाद उन्होंने अपने दीवान का नाम भी अपने मुर्शिद के नाम पर ही रखा. रूमी की मसनवी दुनिया भर में सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में शुमार होती है|
प्रमुख रचनायें
१. मसनवी
२. दीवान-ए-शम्स तबरेज़
रूमी की कविताओं में प्रेम और ईश्वर भक्ति का सुंदर समिश्रण है। इनको हुस्न और ख़ुदा के बारे में लिखने के लिए जाना जाता है।
- माशूक चूँ आफ़्ताब ताबां गरदद।
- आशक़ बे मिस्ल-ए-ज़र्र-ए-गरदान गरदद।
- चूँ बाद-ए-बहार-ए-इश्क़ जोंबां गरदद।
- हर शाख़ के ख़ुश्क नीस्त, रक़सां गरदद।
शम्स तबरेज की मुलाक़ात ने बदली जिंदगी
पहले ही एक शिक्षक और धर्मशास्त्री के रूप में अपनी पहचान बना चुके रूमी अब तक कई किताबों को लिख चुके थे. लेकिन उनकी जिंदगी को पढ़ने पर पता चलता है कि रूमी को इतना कुछ पाने के बाद भी खालीपन महसूस होता था, जबकि उनके कई सारे शुभचिंतक और शिष्य थे. वहां उनको चाहने वालों की कोई कमी नहीं थी. एक दिन रूमी की जिंदगी में ऐसा मोड़ आया, जब उनकी जिंदगी के मायने ही बदल दिए.
बात उस वक़्त की है जब एक दिन रूमी अपने मदरसे से निकलकर बाज़ार की तरफ निकले थे, तब उनकी मुलाकात उस वक़्त के महान दरवेश और सूफी शम्स तबरेज़ से मुलाक़ात हुई. जो लंबे समय से एक सूफी और अध्यात्मिक साथी की तलाश में थे. कहा जाता है कि एक दिन मौलाना रूमी घर पर अपने शागिर्दों के साथ बैठे हुए थे. उनके चारों तरफ किताबों का जमावाड़ा लगा हुआ था. और वह किसी किताब का अध्यन कर रहे थे, कि अचानक उसी वक़्त शम्स तबरेज़ सलाम करते हुए आकर बैठ गए. किताबों की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने रूमी से पूछा कि “यह क्या है?”
रूमी ने कहा, “यह वह चीज़ है जिसके बारे में आप नहीं जानते.” इतना कहना था कि तबरेज़ ने उन किताबों को आग के हवाले कर दिया. इतने में रूमी ने तबरेज़ से कहा, “ये क्या किया?” तो तबरेज़ ने जवाब दिया कि “यह वह चीज़ है, जिसको तुम नहीं जानते.” इतने के बाद वह वहां से चुपचाप निकल लिए और देखते ही देखते रूमी की आंखों से ओझल हो गए. उनके इस रहस्यमय कारनामे से रूमी बहुत प्रभावित हुए और शम्स-शम्स की रट लगाते हुए उनको खोजने निकल पड़े. आखिरकार उन्होंने कोन्या में शम्स तबरेज़ को ढूंढ ही लिया और वापस अपने साथ ले आए. उसके बाद रूमी ने शम्स से आध्यात्मिक शिक्षा हासिल की. और यहीं से रूमी की जिंदगी में बड़ा बदलाव आया.
शम्स के प्रशिक्षण के बाद वह पूरी तरह से सूफीवाद में रम गए. जब रूमी के शिष्यों ने उनकी ये हालत देखी तो वे शम्स से काफी नाराज़ हुए.
ऐसा माना जाता है कि आखिर में उनके किसी शिष्य ने उनको मौत के घाट उतार दिया, हालांकि इससे रूमी को गहरा धक्का लगा और वो अकेले में गम की जिंदगी गुज़ारने लगे. शम्स के साथ इस मुलाकात ने रूमी को मशहूर कर दिया था!
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पैदाइश |
1210
शिराज़ इरान |
वफ़ात |
1291 or 1292
शिराज़ |
धार्मिक मान्यता |
इस्लाम |
E-Book
शेख सादी (शेख मुसलिदुद्दीन सादी), 13वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार। ईरान के दक्षिणी प्रांत में स्थित शीराज नगर में 1185 या 1186 में पैदा हुए थे। उसकी प्रारंभिक शिक्षा शीराज़ में ही हुई। बाद में उच्च शिक्षा के लिए उसने बगदाद के निज़ामिया कालेज में प्रवेश किया। अध्ययन समाप्त होने पर उसने इसलामी दुनिया के कई भागों की लंबी यात्रा पर प्रस्थान किया – अरब, सीरिया, तुर्की, मिस्र, मोरक्को, मध्य एशिया और संभवत: भारत भी, जहाँ उसने सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर देखने की चर्चा की है।
अपनी रचना बोस्ताँ और गुलिस्तां के लिए प्रसिद्ध| इन्होंने कई देशों का भ्रमण किया जिनमे अरब, उत्तरी अफ्रीका, एशिया माइनर, सीरिया और हिंदुस्तान प्रमुख है| सिंध पहुंचने पर कई आला दर्ज़े के सूफ़ियों से इनकी मुलाक़ात भी हुई| बग़दाद में इनकी मुलाक़ात शेख़ शहाबुद्दीन सुहरावर्दी से हुई| इन्होने मुख्तलिफ़ विषयों पर कवितायेँ कही| ब्राउन ने इनके विषय में लिखा है – ये असाधारण है कि जहाँ कहीं भी फ़ारसी का अध्ययन किया जाता है, पढ़ने वाले के हाथ में सबसे पहले इनकी किताब ही आती है और यह बात लगभग डेढ़ सौ सालों से चली आ रही है .प्रमुख रचनायें-
१. गुलिस्तां
२. बोस्ताँ
३.दीवान
४. अख़लाक़ी नासीन
गुलिस्ताँ का प्रणयन सन् 1258 में पूरा हुआ। यह मुख्य रूप से गद्य में लिखी हुई उपदेशप्रधान रचना है जिसमें बीच बीच में सुंदर पद्य और दिलचस्प कथाएँ दी गई हैं। यह आठ अध्यायों में विभक्त है जिनमें अलग अलग विषय वर्णित हैं; उदाहरण के लिए एक में प्रेम और यौवन का विवेचन है। ‘गुलिस्ताँ’ ने प्रकाशन के बाद से अद्वितीय लोकप्रियता प्राप्त की। वह कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी है – लैटिन, फ्रेंच, अंग्रेजी, तुर्की, हिंदुस्तानी आदि। अनेक परवर्ती लेखकों ने उसका प्रतिरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया, किंतु उसकी श्रेष्ठता तक पहुँचने में वे असफल रहे। ऐसी प्रतिरूप रचनाओं में से दो के नाम हैं – बहारिस्ताँ तथा निगारिस्ताँ।
बोस्ताँ की रचना एक वर्ष पहले (1257 में) हो चुकी थी। सादी ने उसे अपने शाही संरक्षक अतालीक को समर्पित किया था। गुलिस्ताँ की तरह इसमें भी शिक्षा और उपदेश की प्रधानता है। इसके दस अनुभाग है। प्रत्येक में मनोरंजक कथाएँ हैं जिनमें किसी न किसी व्यावहारिक बात या शिक्षा पर बल दिया गया है। एक और पुस्तक पंदनामा (या करीमा) भी उनकी लिखी बताई जाती है किंतु इसकी सत्यता में संदेह है। सादी उत्कृष्ट गीतिकार भी थे और हाफिज के आविर्भाव के पहले तक वे गीतिकाव्य के महान् रचयिता माने जाते थे। अपनी कविताओं के कई संग्रह वे छोड़ गए हैं।
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पैदाइश |
1414 |
वफ़ात |
1492 |
व्यवसाय |
कवि |
धार्मिक मान्यता |
इस्लाम |
E-Book
जामी (1414-1492) को आमतौर पर महान शास्त्रीय फ़ारसी कवियों में से अंतिम के रूप में वर्णित किया जाता है। वह एक रहस्यवादी और नक्शबंदी सूफी आदेश के सदस्य थे, जो उनकी कविता पढ़ते समय समझने के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव था।
मौलाना नूर अल-दीन अब्द अल-रहमान, जिन्हें जैमी कहा जाता है, का जन्म आज के अफगानिस्तान में हेमत प्रांत के ज़ाम जिले में हुआ था। उनके पिता इस्फ़हान के आस-पास दश्त जिले से आए थे, और इस तरह जम्मी को अपनाया गया पहला तखल्लुस (काव्यात्मक नाम) था। यह बाद में वह जामी में बदल गया।
जामी के जीवन का बड़ा हिस्सा हेरात में बिताया गया था। वह कोई महान यात्री नहीं था, जैसे सादी या रूमी। दो तीर्थयात्राओं के अलावा, एक फारस में मेश किया गया और दूसरा 1472 में बग़दाद, दमिश्क और तबरेज़ की यात्रा के साथ हेजाज़ के लिए, वह घर पर रहा और एक शांत, आत्मविश्वासी जीवन जीता। ऐसा कहा जाता है कि अपने बाद के वर्षों में, उनके लेखन के पूरा होने के बाद, वे विनम्रता से पीड़ित हुए और अंततः पागल हो गए।
गीत काव्य के क्षेत्र में उन्होंने जीवन में तीन दीवान (कविता का संग्रह): बिगनिंग ऑफ यूथ (1479), सेंट्रल पार्ट ऑफ़ चैन (1489) और क्लोज़ ऑफ़ लाइफ (1491) लिखे। अंत में उन्होंने गद्य बहरीन में लिखा, सादी की गुलिस्तान की नकल और कई सूफी संतों की जीवनी का संकलन, ज़ीफिरस ऑफ़ इंटिमेसी।
इस प्रकार यह जामी का कहना हो सकता है कि वह अपने लेखन के लिए एक ताजा, सूक्ष्म और सुंदर शैली लाया। उनका विषय आमतौर पर एक दार्शनिक-स्तर, पेंटिस्टिक रहस्यवाद पर था। वह सूफी कवियों में सबसे महान है। हेरात में उनकी मृत्यु ने अंतिम महान रहस्यमय फारसी कवि के निधन को चिह्नित किया।
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पैदाइश |
1185
तबरेज़, ईरान |
वफ़ात |
1248
ख्वोय, ईरान |
व्यवसाय |
कवि, दार्शनिक, दर्ज़ी |
धार्मिक मान्यता |
इस्लाम |
E-Book
शम्स तबरेज़ी (फ़ारसी: मुहँमद बिन अली बिन मलिक-दाद तबरेज़ी शम्सुद्दीन, 1185-1248) (582 – 645 हिजरी) एक फ़ारसी भाषाविद, दार्शनिक और फ़कीर थे।
वे अज़रबैजान के तबरेज़ शहर के वासी थे और वे बड़े सम्मानित सूफ़ी बज़ुर्ग थे। शम्स तबरेज़ी की जीवनी पर बहुत कम भरोसेमंद स्रोत उपलब्ध हैं, यह रूमी की भी स्थिति है। कुछ लोग के ख़्याल हैं कि वे किसी जाने माने सूफ़ी नहीं थे, बल्कि एक घुमंतू क़लन्दर थे। एक और स्रोत में यह भी उल्लेख मिलता है कि शम्स किसी दादा हशीशिन सम्प्रदाय के नेता हसन बिन सब्बाह के नायब थे। बाद में शम्स के वालिद ने सुन्नी इस्लाम क़ुबूल कर लिया। लेकिन यह बात शक्की होते हुए भी दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इस्माइली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ थी। और इस्माइली ही थे जिन्होंने सबसे पहला क़ुरआन के ज़ाहिरा (manifest) को नकारकर अव्यक्त अथात् छिपे हुए अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरा दुनिया को नकारकर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।
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जन्म |
अब्दुल्ला शाह
1680 |
वफ़ात |
1757-59
क़सूर |
स्मारक समाधि |
क़सूर |
अन्य नाम |
बुल्ला शाह |
मुरीद |
शाह इनायत |
धार्मिक मान्यता |
इस्लाम |
माता-पिता |
पिता: शाह मुहम्मद दरवेश |
अंतिम स्थान |
क़सूर |
E-Book
सय्यद अब्दुल्ला शाह क़ादरी (शाहमुखी/गुरुमुखी) जीने बुल्ले शाह के नाम से भी जाना जाता है एक पंजाबी दार्शनिक एवं संत थे। उनके पहले आध्यात्मिक गुरु संत सूफी मुर्शिद शाह इनायत अली थे, वे लाहौर से थे। बुल्ले शाह को मुर्शिद से आध्यामिक ज्ञान रूपी खाजने की प्राप्ति हुई और उन्हें उनकी करिश्माई ताकतों के कारण पहचाना जाता था।
बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था| आगे चलकर इनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया| प्यार से इन्हें साईं बुल्ले शाह या बुल्ला कहते| इनके जीवन से सम्बन्धित विद्वानों में अलग-२ मतभेद है| इनका जन्म 1680 में उच गीलानियो में हुआ| इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था| वह आजीविका की खोज में गीलानिया छोड़ कर परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर “पांडो के भट्टिया” गाँव में बस गए| उस समय बुल्ले शाह की आयु छे वर्ष की थी| बुल्ले शाह जीवन भर कसूर में ही रहे|
जीवन
बुल्ले शाह का असली नाम अब्दुल्ला शाह था। उन्होंने शुरुआती शिक्षा अपने पिता से ग्रहण की थी और उच्च शिक्षा क़सूर में ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ली थी। पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ही शिक्षा ली थी उनके सूफ़ी गुरु इनायत शाह थे। बुल्ले शाह की मृत्यु 1757 से 1759 के बीच क़सूर में हुई थी। बुल्ले शाह के बहुत से परिवार जनों ने उनका शाह इनायत का चेला बनने का विरोध किया था क्योंकि बुल्ले शाह का परिवार पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज होने की वजह से ऊँची सैय्यद जात का था जबकि शाह इनायत जात से आराइन थे, जिन्हें निचली जात माना जाता था। लेकिन बुल्ले शाह इस विरोध के बावजूद शाह इनायत से जुड़े रहे और अपनी एक कविता में उन्होंने कहा:
धार्मिक प्रवत्ति
बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया था। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। पर बुल्ले को तलाश थी इक ऐसे मुरशद की जो उसे खुदा से मिला दे। उस दिन शाह इनायत अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नज़र उन पर पड़ी। उसे लगा शायद मुरशद की तलाश पूरी हुई। मुरशद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुरशद मुझे खुदा से मिला दे। मुरशद ने कहा, मुश्किल नहीं है, बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया। लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहनचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे। परीवारीजनों द्वारा उन्हें समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए। परिवारीजनों के साथ हुई तकरार का ज़िक्र उन्होंने अपनी कविताओं में भी किया है। उनकी बहनें-भाभीयां जब समझाती हैं-
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां
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नाम: |
‘बेदम’, ग़ुलाम हुसैन |
पैदाइश: |
1876 |
वफ़ात: |
1936 |
E-Book
बेदम शाह वारसी का असली नाम ग़ुलाम हुसैन था। पीर-व-मुर्शीद सैयद वारिस अली शाह ने उनका नाम बेदम शाह वारसी रखा था। बेदम शाह वारसी 1876 में तसरीफ लाए। उनके पिता का नाम सैयद अनवर था। वो इटावा के रहने वाले थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा इटावा में ही हुई। दूसरों की ग़ज़लें सुनकर गुनगुनाया करते थे। शायर बनने की तमन्ना में आगरा गए। शायरी में निसार अकबराबादी के शिष्य हुए । वो अपनी शायरी और सूफ़ियाना स्वभाव की वजह से सिराज अल-शुआरा के खिताब से संबोधित किए जाने लगे। उनकी ग़ज़लें गाने वाले और कव्वालों के बीच शुरू से ही पसंदीदा रही हैं। बेदम अपनी गज़ल और मनक़बत किसी को भी सुनाने से पहले अस्ताना-ए- वारसी पर सुनाते थे।1936 में लखनऊ हुसैन गंज में आप इस दुनिया से रुख्सत हुए। उनका आख़री दीवान मुसहफ़-ए-बेदम है। इस संग्रह को उनका कुल्लियात भी कहा जाता है। उन्होंने वारसी अली शाह की जीवनी फूलों की चादर के शीर्षक से शेर के शैली में लिखा। उनकी शायरी में सूफ़ियाना कलाम के अलावा भजन, ठुमरी , दादरा और पूर्वी भाषा के के कलाम भी मौजूद हैं। आज भी उनका कलाम लोगों की जबान पर है।
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नाम: |
बू-अली-शाह कलंदर |
पैदाइश: |
1209 ई. |
वफ़ात: |
1324 ई. |
E-Book
कलंदर शाह का असली नाम शेख शर्राफुद्दीन था। उनके पिता शेख फख़रुद्दीन अपने समय के एक महान संत और विद्वान थे। कलंदर शाह 1190 ई. में पैदा हुए और 122 साल की उम्र में 1312 ई. में उसका निधन हो गया था। कलंदर शाह के जीवन के शुरुआत के 20 साल दिल्ली में कुतुबमीनार के पास गुजरे। उसके बाद वे पानीपत आ गए। कुछ लोगों का कहना है कि वे इराक से आए थे और पानीपत में बस गए।
मन्नत मांगने वाले लगाते हैं ताला
कलंदर शाह की दरगाह पर बड़ी संख्या में लोग मन्नत मांगने आते हैं। मन्नत मांगने वाले लोग दरगाह के बगल में एक ताला लगा जाते हैं। कई बार इस ताले के साथ लोग खत लिख कर भी लगाते हैं। दरगाह के बगल में हजारों ताले लगे देखे जा सकते हैं। वैसे कलंदर शाह की दरगाह पर हर रोज श्रद्धालु उमड़ते हैं। पर हर गुरुवार को दरगाह पर अकीदतमंदों की भारी भीड़ उमड़ती है।
कलंदर शाह का यह मकबरा पानीपत में कलंदर चौक पर स्थित है जो उसी के नाम पर है। इस मकबरे के मेन गेट के दाहिनी तरफ प्रसिद्ध उर्दू शायर ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती की कब्र भी है। सभी समुदायों के लोग हर गुरुवार को प्रार्थना करने और आशीर्वाद लेने के लिए यहां आते हैं।
दिल्ली से फैली शोहरत की खुश्बू
उस समय दिल्ली के शासकों की अदालत कुतुबमीनार के पास लगती थी। कलंदर शाह उसकी मशविरा कमेटी में प्रमुख थे। इस्लामी कानून पर लिखी उनकी किताबें आज भी इंडोनेशिया, मलेशिया व अन्य मुस्लिम देशों में पढ़ाई जाती हैं। वे सूफी संत ख्वाजा कुतुबद्दीन बख्तियार काकी के शिष्य थे। उन्हें नूमान इब्न सबित और प्रसिद्ध विद्वान इमाम अबू हनीफा का वंशज माना जाता है। उन्होंने पारसी काव्य संग्रह भी लिखा, जिसका नाम दीवान ए हजरत शरफुद्दीन बू अली शाह कलंदर है।
दमादम मस्त कलंदर
कलंदर का अर्थ है वह व्यक्ति, जो दिव्य आनंद में इतनी गहराई तक डूब चुका है कि अपनी सांसारिक संपत्ति और यहां तक कि अपनी मौजूदगी के बारे में भी परवाह नहीं करता। हजरत मकदूम साहब सोसायटी के इरफान अली बताते हैं कि कलंदर शाह महान सूफी संत और धार्मिक शिक्षक थे। उन्होंने हर तरह के भेदभाव का विरोध किया। उनके अनुयायियों में सभी धर्मों के लोग हैं। दुनियाभर से पूरे साल यहां आने वालों का तांता लगा रहता है। इनमें सबसे ज्यादा संख्या दक्षिण अफ्रीका से आने वालों की है।
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