आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है
जब दिल में तमन्ना थी अब दिल ही तमन्ना है
Aankhon ka tha qusur
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था
क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था
वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था
हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था
बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था
कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था
माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था
साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद
ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था
जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका
सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सर-ए-राह-ए-मय-कदा
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था
Adam ki jo Hakikat hain
अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से
मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है
Falak deta hai jinko
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
गिले शिकवे कहाँ तक होंगे आधी रात तो गुज़री
परेशाँ तुम भी होते हो परेशाँ हम भी होते हैं
जो रक्खे चारागर काफ़ूर दूनी आग लग जाए
कहीं ये ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम भी होते हैं
वो आँखें सामरी-फ़न हैं वो लब ईसा-नफ़स देखो
मुझी पर सेहर होते हैं मुझी पर दम भी होते हैं
ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए
ये आलम-दोस्त अक्सर दुश्मन-ए-आलम भी होते हैं
ब-ज़ाहिर रहनुमा हैं और दिल में बद-गुमानी है
तिरे कूचे में जो जाता है आगे हम भी होते हैं
हमारे आँसुओं की आबदारी और ही कुछ है
कि यूँ होने को रौशन गौहर-ए-शबनम भी होते हैं
ख़ुदा के घर में क्या है काम ज़ाहिद बादा-ख़्वारों का
जिन्हें मिलती नहीं वो तिश्ना-ए-ज़मज़म भी होते हैं
हमारे साथ ही पैदा हुआ है इश्क़ ऐ नासेह
जुदाई किस तरह से हो जुदा तवाम भी होते हैं
नहीं घटती शब-ए-फ़ुर्क़त भी अक्सर हम ने देखा है
जो बढ़ जाते हैं हद से वो ही घट कर कम भी होते हैं
बचाऊँ पैरहन क्या चारागर मैं दस्त-ए-वहशत से
कहीं ऐसे गरेबाँ दामन-ए-मरयम भी होते हैं
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं मर जाओ
जो ग़श आता है तो मुझ पर हज़ारों दम भी होते हैं
किसी का वादा-ए-दीदार तो ऐ ‘दाग़’ बर-हक़ है
मगर ये देखिए दिल-शाद उस दिन हम भी होते हैं
Ab to khusi Ka Gham Hain
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
Ab tak shikayaten hain
अब तक शिकायतें हैं दिल-ए-बद-नसीब से
इक दिन किसी को देख लिया था क़रीब से
अक्सर ब-ज़ोम-ए-तर्क-ए-मोहब्बत ख़ुदा गवाह
गुज़रा चला गया हूँ दयार-ए-हबीब से
दस्त-ए-ख़िज़ाँ ने बढ़ के वहीं उस को चुन लिया
जो फूल गिर गया निगह-ए-अंदलीब से
अहल-ए-सुकूँ से खेल न ऐ मौज-ए-इम्बिसात
इक दिन उलझ के देख किसी ग़म-नसीब से
न अहल-ए-नाज़ को भी मिले फ़ुर्सत-ए-नियाज़
मैं दूर हट गया जो वो गुज़रे क़रीब से
ये किस ख़ता पे रूठ गई चश्म-ए-इल्तिफ़ात
ये कब का इंतिक़ाम लिया मुझ ग़रीब से
उन के बग़ैर भी है वही ज़िंदगी का दौर
हालात-ए-ज़िंदगी हैं मगर कुछ अजीब से
समझे हुए थे हुस्न-ए-अज़ल जिस को हम ‘शकील’
अपना ही अक्स-ए-रुख़ नज़र आया क़रीब से
Abhi Zinda ho
अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने
Achchha Hain Dil Ke Sath Rahe
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे
Zamana Aaya hai be Hijabi ka
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा
गुज़र गया अब वो दौर साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले
बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा
कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में आ बसेंगे
बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ार-ज़ार होगा
सुना दिया गोश मुंतज़िर को हिजाज़ की ख़ामुशी ने आख़िर
जो अहद सहराइयों से बाँधा गया था पर उस्तुवार होगा
निकल के सहरा से जिस ने रूमा की सल्तनत को उलट दिया था
सुना है ये क़ुदसियों से मैं ने वो शेर फिर होशियार होगा
किया मिरा तज़्किरा जो साक़ी ने बादा-ख़्वारों की अंजुमन में
तो पीर मय-ख़ाना सुन के कहने लगा कि मुँह फट है ख़ार होगा
दयार मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है
खरा है जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र कम-अयार होगा
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा
सफ़ीना-ए-बर्ग-ए-गुल बना लेगा क़ाफ़िला मोर-ए-ना-तावाँ का
हज़ार मौजों की हो कशाकश मगर ये दरिया से पार होगा
चमन में लाला दिखाता फिरता है दाग़ अपना कली कली को
ये जानता है कि इस दिखावे से दिल जलों में शुमार होगा
जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए’तिबार होगा
कहा जो क़मरी से मैं ने इक दिन यहाँ के आज़ाद पागल हैं
तो ग़ुंचे कहने लगे हमारे चमन का ये राज़दार होगा
ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे
मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा
ये रस्म बरहम फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश नज़र भी
रहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा
मैं ज़ुल्मत-ए-शब में ले के निकलूँगा अपने दरमांदा कारवाँ को
शह निशाँ होगी आह मेरी नफ़स मिरा शोला बार होगा
नहीं है ग़ैर अज़ नुमूद कुछ भी जो मुद्दआ तेरी ज़िंदगी का
तू इक नफ़स में जहाँ से मिटना तुझे मिसाल शरार होगा
न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश इंतिज़ार होगा
Apna Nhi Hai
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
उस दर पे नहीं बार तो का’बे ही को हो आए