Category: Jigar Moradabadi
अज़ल के दिन जिन्हे ले कर चले थे तेरी महफ़िल से
वो शोला आज तक लिपटे हुआ है दामाने दिल से
मुझे अब खोफ ही क्या हिजर में तन्हाई दिल से
हज़ारो महफिले ले कर उठा हु तेरी महफ़िल से
ये आलम है हुजुमे शोक में बे ताबी दिल से
के मंज़िल पर पहुंच कर भी उडा जाता हु मंज़िल से
फलक पर दुबे जाते है तारे भी शबे फुरकत
मगर निस्बत कहा उनको मेरे दुबे हुए दिल से
निगाहे कैस की उठी है जोशे कैफ मस्ती में
ज़रा होशयार रहना सारबा लैला की मैफिल में
समझ कर फूकना उस को ज़रा ए दागे न कामी
बहुत से घर भी है आबाद उस उजड़े हुए दिल में
मोहब्बत में कदम रखते ही गुम होना पड़ा मुझको
निकल आये हज़ारो मंज़िले एक ही मंज़िल से
क़यामत क्या,कहाँ का हश्र,क्या दैर,क्या काबा
ये सब हंगामा बरपा है, मेरे एक मुज़्तरिब दिल
बयां क्या हो यहाँ की मुस्किले बस मुक्तसर ये है
वही अच्छे है, कुछ जो जिस कदर है दूर मंज़िल से
हुजुमे यास एसा कुछ नज़र नहीं मुझको
बाफुरे शौक़ में आगे बढ़ा जाता हु मंज़िल से
मोहब्बत में ज़रूरत ही तलाशे गैर की क्या थी
अगर हम ढूंढ़ते नस्तर भी मिल जाता रगे गुल से
बदन से जान भी हो जाएगी रुखसत जिगर लेकिन
न जायेगा ख़याले हज़रते असगर मेरे दिल से
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यू तो होने को गुलिस्ताँ भी है बिराना भी है
देखना ये है, के हम मे कोई दीवाना भी है|
बात सदा ही सही, लेकिन हकीमा भी है
यानी हर इंसान बा-कद्रे होश दीवाना भी है|
होशयार,ओ-मस्ते,साहेबा-ए-तागाफूल,होशयार
इस्क की फ़ितरत मे एक शाने हारीफना भी है|
होश मे रहता तो क्या जाने कहाँ रखता क़दम
ये गनीमत है, मज़ा-ज़ा इस्क दीवाना भी है|
किस जगह वाकीया हुया है हज़रते वाइज़ के घर
दूर मस्जिद भी नही नज़दीक मयखना भी है|
मिलता जुलता है मिज़ाज़े हुस्सैन ही से रंगे इस्क
शम्मा गर बे-बाक है गुस्ताक़ परवाना भी है|
ज़िंदगानी ता-कुजा सिर्फ़ जाम -बा सबु
बे खबर मयखना है,एक और मयखना भी है|
खैर है ज़ाहिद ये कैसा इन्क़िलाब आया है आज
तेरे हर अंदाज़ मे एक कैफ़े रिंदाना भी है|
हासीले हर जुस्तजु आख़िर यही निकला जिगर
इस्क खुद मंज़िल भी है,मंज़िल से बेगाना भी है|
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अपना ही सा ए-नरगिसे मस्ताना बना देना
मैं जब तुझे जानू,मुझे दीवाना बना देना
हर क़ैद से हर रस्मे से,बेगाना बना दे
दीवाना बना दे मुझे दीवाना बना दे
हर वर्के अदा खीरेमन हस्ती पे गिरा कर
नज़रो को मेरी तूर का अफ़साना बना दे
हर दिल है तेरी बज़म मे लबरेज़ मेय इस्क
एक और भी पयमाने से पयमाना बना दे
तू सकी मयखना भी तू नशा बा मेय भी
मैं तिसना मस्ती मुझे मस्ताना बना दे
अल्ला ने तुजको मेय बा मयखना बनाया
तू सारी फ़ज़ा को मेय बा मयखना बना दे
तू सकी मयखना है मैं रिंदे बाला नोस
मेरे लिए मयखना को पयमाना बना दे
या दीदा-हा-बा दिल मे तू आप समा जा
या फिर दिल-बा-दीदा ही को बिरान बना दे
क़तरे मे वो दरया है जो आलम को डूबा-दे
ज़र्रे मे वो सहेरा है के दीवाना बना दे
लेकिन मुझे हर क़ैद-तईन से बचा कर
जो चाहे वो,ए नरगिसे-मस्ताना बना दे
आलम तो है,दीवाना जिगर,हुसन की खातिर
तू अपने लिए हुसन को दीवाना बना दे
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ना ताबे मस्ती ना होशे हस्ती के सूक्र नेमत अदा करेगे
खिज़ा मे जब है|ये अपना आलम, बहार आई तो क्या करेगे
हर एक गम को फ़ारोग दे कर| यहा तक आ-रास्ता करेगे
वही जो रहते है,दूर हम से खुद अपनी आ-गोस वा करेगे
जिधर से गुज़रे गे सर फ़रोसना कारनामे सुना करेगे
वो अपने दिल को हज़ार रोके,मेरी मोहब्बत को क्या करेगे
ना सुक्रे गम ज़ेरे लब करेगे,ना शिकबा बर् माला करेगे
जो हम पे गुज़रे गी दिल ही दिल मे कहा करेगे सुना करेगे
तेरे तसब्बुर से हासिल इतना कामाले क़स्बे ज़िया करेगे
जहा कुछ आँसू टपक पढ़ेगे सितारे सजदा किया करेगे
ये ज़हिरी जलबा हाय रंगीन फरेव कब तक दिया करेगे
नज़र की जो कर सके ना तस्कीन वो दिल की तस्कीन क्या करेगे
वाहा भी आहे भरा करेगे, वाहा भी नाले किया करेगे
जिन्हे है तुज़से ही सिर्फ़ निसबत,वो तेरी ज़न्नत को क्या करेगे
नही ह जिनको मज़ले हस्ती ,सिवाए उसके वो क्या करेगे
के जिस ज़मीन के है बसने वाले उसे भी रुसबा किया करेगे
यहा ना दुनिया ना फ़िकरे दुनिया यहा ना उक़्बा ना फ़िकरे उक़्बा
जिन्हे सारे मा-सिबा भी होगा वही ग़मे मा-सिबा करेगे
हम अपनी क्यू तर्ज़े फिकर छोड़े हम अपनी क्यू वजे ख़ास बदले
के इन्क़िलाब्ते नू-बनू तो हुया किए है हुया करेगे
ये सखत तर इस्क के मराहिल ये हर कदम पे हज़ार एयसान
जो बच रहे जुनू के हक़ मे ,जिएगे जब तक दुआ करेगे
खुद अपने ही शोज़े बातनी से ,निकाल एक श्म्म गैर फानी
चीरागे दायरो हरम तो ए दिल ,जला करेगे भुजा करेगे
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तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
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तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है
ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है
क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है
वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है
वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शम्अ’ लेकिन रौशनी कम होती जाती है
वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई
वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है
वही है ज़िंदगी लेकिन ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है
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दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद
छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नज़र ने
अब तक है वो इक नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा याद
जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को
मरने की अदा याद न जीने की अदा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तिरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मिरी शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तिरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
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आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था
क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था
वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था
हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था
बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था
कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था
माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था
साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद
ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था
जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका
सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सर-ए-राह-ए-मय-कदा
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था
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