Jab ishq sikhata hai adab-e-khud agahi

जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही

‘अत्तार’ हो ‘रूमी’ हो ‘राज़ी’ हो ‘ग़ज़ाली’ हो
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही

नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना
कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही

ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही

दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला
हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही

आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही

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na aate hau to takraar kya thi

न आते हमें इस में तकरार क्या थी
मगर वा’दा करते हुए आर क्या थी

तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला
ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी

भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा
तिरी आँख मस्ती में हुश्यार क्या थी

तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी

खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा
कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी

कहीं ज़िक्र रहता है ‘इक़बाल’ तेरा
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी

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meri ibtida kya hai

ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू क्या है अगर मैं कीमिया-गर हूँ
यही सोज़-ए-नफ़स है और मेरी कीमिया क्या है

नज़र आईं मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इस में
न पूछ ऐ हम-नशीं मुझ से वो चश्म-ए-सुर्मा-सा क्या है

अगर होता वो ‘मजज़ूब’-ए-फ़रंगी इस ज़माने में
तो ‘इक़बाल’ उस को समझाता मक़ाम-ए-किबरिया क्या है

नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा
ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है

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mita diya mere saki ne

मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
पिला के मुझ को मय-ए-ला-इलाहा-इल्ला-हू

न मय न शे’र न साक़ी न शोर-ए-चंग-ओ-रबाब
सुकूत-ए-कोह ओ लब-ए-जू व लाला-ए-ख़ुद-रू

गदा-ए-मय-कदा की शान-ए-बे-नियाज़ी देख
पहुँच के चश्मा-ए-हैवाँ पे तोड़ता है सुबू

मिरा सबूचा ग़नीमत है इस ज़माने में
कि ख़ानक़ाह में ख़ाली हैं सूफ़ियों के कदू

मैं नौ-नियाज़ हूँ मुझ से हिजाब ही औला
कि दिल से बढ़ के है मेरी निगाह बे-क़ाबू

अगरचे बहर की मौजों में है मक़ाम इस का
सफ़ा-ए-पाकी-ए-तीनत से है गुहर का वुज़ू

जमील-तर हैं गुल ओ लाला फ़ैज़ से इस के
निगाह-ए-शाइर-ए-रंगीं-नवा में है जादू

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jab ishq sikhata hai

जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही

‘अत्तार’ हो ‘रूमी’ हो ‘राज़ी’ हो ‘ग़ज़ाली’ हो
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही

नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना
कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही

ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही

दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला
हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही

आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही

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tujhe yaad kya nhi hai

तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना

ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में
न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना

नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना

रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की
कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना

मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना

मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना

तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं
न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना

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khird ne mujhko ata ki hai

ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
सिखाई इश्क़ ने मुझ को हदीस-ए-रिंदाना

न बादा है न सुराही न दौर-ए-पैमाना
फ़क़त निगाह से रंगीं है बज़्म-ए-जानाना

मिरी नवा-ए-परेशाँ को शाइरी न समझ
कि मैं हूँ महरम-ए-राज़-ए-दुरून-ए-मय-ख़ाना

कली को देख कि है तिश्ना-ए-नसीम-ए-सहर
इसी में है मिरे दिल का तमाम अफ़्साना

कोई बताए मुझे ये ग़याब है कि हुज़ूर
सब आश्ना हैं यहाँ एक मैं हूँ बेगाना

फ़रंग में कोई दिन और भी ठहर जाऊँ
मिरे जुनूँ को संभाले अगर ये वीराना

मक़ाम-ए-अक़्ल से आसाँ गुज़र गया ‘इक़बाल’
मक़ाम-ए-शौक़ में खोया गया वो फ़रज़ाना

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ye hai meri kab naseebi

वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी

मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है
ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी

इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-‘रूमी’ कभी पेच-ओ-ताब-ए-‘राज़ी’

वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी

न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी

नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी

कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी

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pochh usse maqbool hai fitrat ki gabahi

पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
तू साहिब-ए-मंज़िल है कि भटका हुआ राही

काफ़िर है मुसलमाँ तो न शाही न फ़क़ीरी
मोमिन है तो करता है फ़क़ीरी में भी शाही

काफ़िर है तो शमशीर पे करता है भरोसा
मोमिन है तो बे-तेग़ भी लड़ता है सिपाही

काफ़िर है तो है ताबा-ए-तक़दीर मुसलमाँ
मोमिन है तो वो आप है तक़दीर-ए-इलाही

मैं ने तो किया पर्दा-ए-असरार को भी चाक
देरीना है तेरा मरज़-ए-कोर-निगाही

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musalma ke laho me hai

मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का

शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से
सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का

बहुत मुद्दत के नख़चीरों का अंदाज़-ए-निगह बदला
कि मैं ने फ़ाश कर डाला तरीक़ा शाहबाज़ी का

क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता
फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का

हदीस-ए-बादा-ओ-मीना-ओ-जाम आती नहीं मुझ को
न कर ख़ारा-शग़ाफ़ों से तक़ाज़ा शीशा-साज़ी का

कहाँ से तू ने ऐ ‘इक़बाल’ सीखी है ये दरवेशी
कि चर्चा पादशाहों में है तेरी बे-नियाज़ी का

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