Category: Shakeel Badayuni
ग़मे इश्क रहे गया है, ग़मे जुस्तजू में ढलकर
वो नज़र से छुप गए है, मेरी ज़िन्दगी बदल कर
तेरी गुफ्तगू को नासे दिले गम-ज़दा से जल कर
अभी तक तो सुन रहा था मगर अब ज़रा संभल कर
न मिला सुरागे मंज़िल कहीं उम्र भर किसी का
नज़र आ गयी है मंज़िल कहीं दो कदम ही चल कर
ग़मे उम्र मुख़्तसर से अभी बे खबर है कलियाँ
न चमन में फेक देना किसी फूल को मसल कर
है किस के मुन्तज़िर हम मगर ए उम्मेदे मबहम
कहीं वक्त रहे न जाये यूही करबटें बदल कर
मेरी तेज़-गामियूं से नहीं वर्क को भी निस्बत
कहीं खो न जाये दुनया मेरे साथ साथ चल कर
कभी यक-बा-यक तबज्जो कभी दफ़अतन तगाफुल
मुझे आज़मा रहा है कोई रुख बदल बदल कर
हैं शकील ज़िन्दगी में ये जो बुसअतें नुमायाँ
इन्ही बुसअतें से पैदा कोई आलमे ग़ज़ल कर
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मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा
तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िन्दगी से प्यारा
वो अगर बुरा न माने तो जहाँ-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँढ लूँ सहारा
ये फ़ुलक फ़ुलक हवायेँ ये झुकी झुकी घटायेँ
वो नज़र भी क्या नज़र है जो समझ न ले इशारा
मुझे आ गया यक़ीं सा यही है मेरी मंज़िल
सर-ए-रह जब किसी ने मुझे दफ़्फ़’अतन पुकारा
मैं बताऊँ फ़र्क़ नासिह, जो है मुझ में और तुझ में
मेरी ज़िन्दगी तलातुम, तेरी ज़िन्दगी किनारा
मुझे गुफ़्तगू से बढ़कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तगू है
वही बात पूछ्ते हैं जो न कह सकूँ दोबारा
कोई अये ‘शकील’ देखे, ये जुनूँ नहीं तो क्या है
के उसी के हो गये हम जो न हो सका हमारा
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हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त छुपा रहा हूँ मैं
शिकस्ता-दिल हूँ मगर मुस्कुरा रहा हूँ मैं
कमाल-ए-हौसला-ए-दिल दिखा रहा हूँ मैं
किसी से रस्म-ए-मोहब्बत बढ़ा रहा हूँ मैं
बदल दिया है मोहब्बत ने उन का तर्ज़-ए-अमल
अब उन में शान-ए-तकल्लुफ़ सी पा रहा हूँ मैं
मचल मचल के मैं कहता हूँ बैठिए तो सही
सँभल सँभल के वो कहते हैं जा रहा हूँ मैं
सुनी हुई सी बस इक धुन ज़रूर है लेकिन
ये ख़ुद ख़बर नहीं क्या गुनगुना रहा हूँ मैं
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दिल मरकज़-ए-हिजाब बनाया न जाएगा
उन से भी राज़-ए-इश्क़ छुपाया न जाएगा
सर को कभी क़दम पे झुकाया न जाएगा
उन के नुक़ूश-ए-पा को मिटाया न जाएगा
बे-वज्ह इंतिज़ार दिखाने से फ़ाएदा
कह दीजिए कि सामने आया न जाएगा
आँखों में अश्क क़ल्ब परेशाँ नज़र उदास
इस तरह उन को छोड़ के जाया न जाएगा
वो ख़ुद कहें तो शरह-ए-मोहब्बत बयाँ करूँ
नग़्मा बग़ैर साज़ सुनाया न जाएगा
बेहतर यही है ज़िक्र-ए-मोहब्बत न छेड़िए
नक़्शा बिगड़ गया तो बनाया न जाएगा
दिल की तरफ़ ‘शकील’ तवज्जोह ज़रूर हो
ये घर उजड़ गया तो बसाया न जाएगा
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चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
माह ओ ख़ुर्शीद को यकजा नहीं देखा जाता
यूँ तो उन आँखों से क्या क्या नहीं देखा जाता
हाँ मगर अपना ही जल्वा नहीं देखा जाता
दीदा-ओ-दिल की तबाही मुझे मंज़ूर मगर
उन का उतरा हुआ चेहरा नहीं देखा जाता
ज़ब्त-ए-ग़म हाँ वही अश्कों का तलातुम इक बार
अब तो सूखा हुआ दरिया नहीं देखा जाता
ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ
मुझ से अब ख़ून-ए-तमन्ना नहीं देखा जाता
अब तो झूटी भी तसल्ली ब-सर-ओ-चश्म क़ुबूल
दिल का रह रह के तड़पना नहीं देखा जाता
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तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
कहीं ज़िंदगी की बारिश कहीं क़त्ल-ए-आम देखा
मेरी अर्ज़-ए-शौक़ पढ़ लें ये कहाँ उन्हें गवारा
वहीं चाक कर दिया ख़त जहाँ मेरा नाम देखा
बड़ी मिन्नतों से आ कर वो मुझे मना रहे हैं
मैं बचा रहा हूँ दामन मिरा इंतिक़ाम देखा
ऐ ‘शकील’ रूह-परवर तिरी बे-ख़ुदी के नग़्मे
मगर आज तक न हम ने तिरे लब पे जाम देखा
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कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है
छुप के रोता हूँ तिरी याद में दुनिया भर से
कब मिरी आँख से बरसात नहीं होती है
हाल-ए-दिल पूछने वाले तिरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है
जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो ‘शकील’
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है
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ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी
इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
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हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे
कोशिश तो बहुत की हम ने मगर पाया न ग़म-ए-हस्ती से मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बढ़ी घबरा के मोहब्बत कर बैठे
हस्ती के तलातुम में पिन्हाँ थे ऐश ओ तरब के धारे भी
अफ़्सोस हमी से भूल हुई अश्कों पे क़नाअत कर बैठे
ज़िंदान-ए-जहाँ से ये नफ़रत ऐ हज़रत-ए-वाइज़ क्या कहना
अल्लाह के आगे बस न चला बंदों से बग़ावत कर बैठे
गुलचीं ने तो कोशिश कर डाली सूनी हो चमन की हर डाली
काँटों ने मुबारक काम किया फूलों की हिफ़ाज़त कर बैठे
हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद वो मोहब्बत कर बैठे
अल्लाह तो सब की सुनता है जुरअत है ‘शकील’ अपनी अपनी
‘हाली’ ने ज़बाँ से उफ़ भी न की ‘इक़बाल’ शिकायत कर बैठे
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निगाह-ए-नाज़ का इक वार कर के छोड़ दिया
दिल-ए-हरीफ़ को बेदार कर के छोड़ दिया
हुई तो है यूँही तरदीद-ए-अहद-ए-लुत्फ़-ओ-करम
दबी ज़बान से इक़रार कर के छोड़ दिया
छुपे कुछ ऐसे कि ता-ज़ीस्त फिर न आए नज़र
रहीन-ए-हसरत-ए-दीदार कर के छोड़ दिया
मुझे तो क़ैद-ए-मोहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन
किसी ने मुझ को गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया
नज़र को जुरअत-ए-तकमील-ए-बंदगी न हुई
तवाफ़-ए-कूच-ए-दिल-दार कर के छोड़ दिया
ख़ुशा वो कशमकश-ए-रब्त-ए-बाहमी जिस ने
दिल ओ दिमाग़ को बे-कार कर के छोड़ दिया
ज़हे-नसीब कि दुनिया ने तेरे ग़म ने मुझे
मसर्रतों का तलबगार कर के छोड़ दिया
करम की आस में अब किस के दर पे जाए ‘शकील’
जब आप ही ने गुनहगार कर के छोड़ दिया
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