बेचैन इस क़दर था कि सोया न रात भर
पलकों से लिख रहा था तिरा नाम चाँद पर
mita diya mere saki ne
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
पिला के मुझ को मय-ए-ला-इलाहा-इल्ला-हू
न मय न शे’र न साक़ी न शोर-ए-चंग-ओ-रबाब
सुकूत-ए-कोह ओ लब-ए-जू व लाला-ए-ख़ुद-रू
गदा-ए-मय-कदा की शान-ए-बे-नियाज़ी देख
पहुँच के चश्मा-ए-हैवाँ पे तोड़ता है सुबू
मिरा सबूचा ग़नीमत है इस ज़माने में
कि ख़ानक़ाह में ख़ाली हैं सूफ़ियों के कदू
मैं नौ-नियाज़ हूँ मुझ से हिजाब ही औला
कि दिल से बढ़ के है मेरी निगाह बे-क़ाबू
अगरचे बहर की मौजों में है मक़ाम इस का
सफ़ा-ए-पाकी-ए-तीनत से है गुहर का वुज़ू
जमील-तर हैं गुल ओ लाला फ़ैज़ से इस के
निगाह-ए-शाइर-ए-रंगीं-नवा में है जादू
jab ishq sikhata hai
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही
‘अत्तार’ हो ‘रूमी’ हो ‘राज़ी’ हो ‘ग़ज़ाली’ हो
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही
नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना
कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही
दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला
हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही
आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही
tujhe yaad kya nhi hai
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना
ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में
न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना
रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की
कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना
मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना
मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना
तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं
न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना
khird ne mujhko ata ki hai
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
सिखाई इश्क़ ने मुझ को हदीस-ए-रिंदाना
न बादा है न सुराही न दौर-ए-पैमाना
फ़क़त निगाह से रंगीं है बज़्म-ए-जानाना
मिरी नवा-ए-परेशाँ को शाइरी न समझ
कि मैं हूँ महरम-ए-राज़-ए-दुरून-ए-मय-ख़ाना
कली को देख कि है तिश्ना-ए-नसीम-ए-सहर
इसी में है मिरे दिल का तमाम अफ़्साना
कोई बताए मुझे ये ग़याब है कि हुज़ूर
सब आश्ना हैं यहाँ एक मैं हूँ बेगाना
फ़रंग में कोई दिन और भी ठहर जाऊँ
मिरे जुनूँ को संभाले अगर ये वीराना
मक़ाम-ए-अक़्ल से आसाँ गुज़र गया ‘इक़बाल’
मक़ाम-ए-शौक़ में खोया गया वो फ़रज़ाना
ishq ko akal ne diwana banaya
इश्क़ ने अक़्ल को दीवाना बना रक्खा है
ज़ुल्फ़-ए-अंजाम की उलझन में फँसा रक्खा है
उठ के बालीं से मिरे दफ़्न की तदबीर करो
नब्ज़ क्या देखते हो नब्ज़ में क्या रक्खा है
मेरी क़िस्मत के नविश्ते को मिटा दे कोई
मुझ को क़िस्मत के नविश्ते ने मिटा रक्खा है
आप बेताब-ए-नुमाइश न करें जल्वों को
हम ने दीदार क़यामत पे उठा रक्खा है
वो न आए न सही मौत तो आएगी ‘हफ़ीज़’
सब्र कर सब्र तिरा काम हुआ रक्खा है
jaha katre ko tarsaya gya
जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ
वहीं डूबा हुआ पाया गया हूँ
ब-हाल-ए-गुमरही पाया गया हूँ
हरम से दैर में लाया गया हूँ
बला काफ़ी न थी इक ज़िंदगी की
दोबारा याद फ़रमाया गया हूँ
ब-रंग-ए-लाला-ए-वीराना बेकार
खिलाया और मुरझाया गया हूँ
अगरचे अब्र-ए-गौहर-बार हूँ मैं
मगर आँखों से बरसाया गया हूँ
सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ
फ़रिश्ते को न मैं शैतान समझा
नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ
कोई सनअत नहीं मुझ में तो फिर क्यूँ
नुमाइश-गाह में लाया गया हूँ
ब-क़ौल-ए-बरहमन क़हर-ए-ख़ुदा हूँ
बुतों के हुस्न पर ढाया गया हूँ
मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है
सुना है मैं कहीं पाया गया हूँ
‘हफ़ीज़’ अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ
tere khayal ke diwar-o-dar
तेरे ख़याल के दीवार-ओ-दर बनाते हैं
हम अपने घर में भी तेरा ही घर बनाते हैं
बजाए यौम-ए-मलामत रखा है जश्न मिरा
मिरे भी दोस्त मुझे किस क़दर बनाते हैं
बिखेरते रहो सहरा में बीज उल्फ़त के
कि बीज ही तो उभर कर शजर बनाते हैं
बस अब हिकायत-ए-मज़दूरी-ए-वफ़ा न बना
वो घर उन्हें नहीं मिलते जो घर बनाते हैं
तिरा भी नाम छपा वज्ह-ए-मर्ग-ए-आशिक़ में
ये देख बे-ख़बरे यूँ ख़बर बनाते हैं
वो क्या ख़ुदा की परस्तिश करेंगे मेरी तरह
जो एक बुत भी बहुत सोच कर बनाते हैं
कहा ये किस ने कि है क़स्र-ए-इश्क़ रहन-ए-शबाब
बनाने वाले इसे उम्र-भर बनाते हैं
तू आए तो तिरी कारी-गरी की लाज रहे
हम आज दश्त में रह कर भी घर बनाते हैं
मिली न फ़ुर्सत-ए-आराइश-ए-बयाबाँ भी
कि हम यहाँ भी तिरे बाम-ओ-दर बनाते हैं
अदू हवाओ कराची के लोग हारे नहीं
जो घर गिराओ वो बार-ए-दिगर बनाते हैं
अबु-ज़बी में हमेशा नई ग़ज़ल ‘आली’
ये लोग ही तो तुझे मो’तबर बनाते हैं
yad aana hi mohabbat nhi ha
याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ
भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है
gam aur khushi kya hai
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया