kuch din se intijaar hai

कुछ दिन से इंतिज़ार-ए-सवाल-ए-दिगर में है
वो मुज़्महिल हया जो किसी की नज़र में है

सीखी यहीं मिरे दिल-ए-काफ़िर ने बंदगी
रब्ब-ए-करीम है तू तिरी रहगुज़र में है

माज़ी में जो मज़ा मिरी शाम-ओ-सहर में था
अब वो फ़क़त तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में है

क्या जाने किस को किस से है अब दाद की तलब
वो ग़म जो मेरे दिल में है तेरी नज़र में है

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nhi h nigah me koi manzil

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मय-कदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हाव-हू ही सही

गर इंतिज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तुगू ही सही

दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

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kab rukega dard-e-dil

कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी

कब जान लहू होगी कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तिरी शुनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी

कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल कब बहकेगा मय-ख़ाना
कब सुब्ह-ए-सुख़न होगी कब शाम-ए-नज़र होगी

वाइ’ज़ है न ज़ाहिद है नासेह है न क़ातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी

कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामत-ए-जानाना
कब हश्र मुअ’य्यन है तुझ को तो ख़बर होगी

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dimag arsh pe hai

दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
सफ़र गुमान का है और यक़ीं पे चलते हैं

हमारे क़ाफ़िला-सलारों के इरादे क्या
चले तो हाँ पे हैं लेकिन नहीं पे चलते हैं

न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
क़दम कहीं पे हैं पड़ते कहीं पे चलते हैं

बना के उन को अगर छोड़ दो तो गिर जाएँ
मकाँ नए कि पुराने मकीं पे चलते हैं

जहाँ तुम्हारा है तुम को किसी का डर क्या है
तमाम तीर जहाँ के हमीं पे चलते हैं

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ye teri rah me bhaithe hai

यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
तू ने ठोकर जो लगा दी तो मिरा सर निकला

लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
मैं जिसे फूँक कर आया वो मिरा घर निकला

एक वो शख़्स जो फूलों से भरे था दामन
हर कफ़-ए-गुल में छुपाए हुए ख़ंजर निकला

यूँ तो इल्ज़ाम है तूफ़ाँ पे डुबो देने का
तह में दरिया की मगर नाव का लंगर निकला

घर के घर ख़ाक हुए जल के नदी सूख गई
फिर भी उन आँखों में झाँका तो समुंदर निकला

फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जिसे ढूँढ रहा था मिरे अंदर निकला

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samajh saka na koi

समझ सका न कोई राज़-ए-हुस्न बेगाना
जुज़ ईं नियाज़-पसंदी-ए-क़ल्ब-ए-दीवाना

ये चाँदनी ये फ़ज़ा ये हवा-ए-मय-ख़ाना
दवाम हो तो मिले मुझ को एक पैमाना

तिरी निगाह की तौसीफ़ हो रही है मगर
मिरी ही तिश्ना-लबी भर रही है पैमाना

जहाँ पहुँच न सका कोई जज़्बा-ए-मुहतात
वहाँ गया है मिरा ज़ौक़-ए-सरफ़रोशाना

नहीं है सरमद-ओ-मंसूर पर ही ख़त्म जुनूँ
मुझे भी लोगों ने अक्सर कहा है दीवाना

शिकायत-ए-ग़म-ए-दिल को ज़बाँ नहीं खुलती
कि इस निगाह के अंदाज़ हैं करीमाना

तमाम बज़्म में इक हम ख़मोश बैठे हैं
सुना रहे हैं सभी तुझ को तेरा अफ़्साना

यक़ीन रख कि तिरी अंजुमन से हम भी कभी
तिरी ही तरह से गुज़़रेंगे बे-नियाज़ाना

गुज़ारनी है शब-ए-ग़म किसी तरह ऐ दोस्त
न अपनी कोई कहानी न कोई अफ़्साना

न पूछ मुझ से किसी शय की अस्ल ऐ हमदम
कि देखता हूँ मैं आबादियों में वीराना

अजब इ’ताब-ए-मशिय्यत है मुझ पे ऐ ‘आली’
गदा बना के दिया है मिज़ाज शाहाना

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kisi ko naze khirad hai

किसी को नाज़-ए-ख़िरद है किसी को फ़ख़्र-ए-जुनूँ
मैं अपने दिल का फ़साना कहूँ तो किस से कहूँ

न इज़्तिराब में लज़्ज़त न आरज़ू-ए-सुकूँ
कोई कहे कि मैं अब क्या फ़रेब खा के जियूँ

रहेगी फिर न ये कैफ़िय्यत-ए-तलब ऐ दिल
छुपे हुए हैं तो है इश्तियाक़-ए-दीद फ़ुज़ूँ

है आज दिल पे गुमाँ हुस्न-ए-ना-शनासी का
जला चुके जब उसे जल्वा-हा-ए-गूना-गूँ

हो अब भी फ़िक्र में मुश्किल तो याद आते हैं
वो हर अदा में तग़ज़्ज़ुल के सैकड़ों मज़मूँ

तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
उमीद भी न रखूँ ना-उमीद भी न रहूँ

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umr bhar yaad hai

उम्र-भर का याद है बस एक अफ़्साना मुझे
मैं ने पहचाना जिसे उस ने न पहचाना मुझे

अंजुमन की अंजुमन मुझ से मुख़ातब हो गई
आप ने देखा था शायद बे-नियाज़ाना मुझे

पहले दीवाना कहा करते थे लेकिन आज-कल
लोग कहते हैं सरापा तेरा अफ़्साना मुझे

गाहे गाहे ज़िक्र कर लेने से क्या याद आएगा
याद ही रखना मुझे या भूल ही जाना मुझे

ख़्वाब ही देखा है लेकिन हाए किस लज़्ज़त का ख़्वाब
वो मिरे घर तेरा आना और बहलाना मुझे

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saki chaman me aa

साक़ी चमन में आ कि तिरी याद है बहुत
भूले वही हैं जिन की हमें याद है बहुत

दूल्हा तुम्हारा असग़री आज़ाद है बहुत
करता निगोड़ा चौक में बर्बाद है बहुत

मुमकिन नहीं कि हो न अनीस-ए-दिल-ए-हज़ीं
कम-सिन अभी बुआ सितम-ईजाद है बहुत

जाने से उन के घर नहीं उजड़ा फ़क़त मिरा
वीरान ख़ाना-ए-दिल-ए-ना-शाद है बहुत

देखूँ निगोड़ा करता है किस तरह ख़ून-ए-दिल
आज़ुर्दा इन दिनों मुआ जल्लाद है बहुत

ख़ुश हो के सास ने कहा दुल्हन से रश्क-ए-गुल
दम से तुम्हारे घर मिरा आबाद है बहुत

बुलबुल को फ़स्ल-ए-गुल में असीर-ए-क़फ़स किया
ग़ाफ़िल ख़ुदा के ख़ौफ़ से सय्याद है बहुत

तस्वीर उन की खिच न सकी पीर हो गया
शर्मिंदा अपने फ़ेल से बहज़ाद है बहुत

लेती हूँ करवटें बुआ कुंज-ए-मज़ार में
‘मोहसिन’ निगोड़ा क़ब्र में भी याद है बहुत

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