haqiqt ko fasana bana dala

हक़ीक़तों को फ़साना बना के भूल गया
मैं तेरे इश्क़ की हर चोट खा के भूल गया

ज़रा ये दूरी-ए-एहसास-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ तो देख
कि मैं तुझे तिरे नज़दीक आ के भूल गया

अब उस से बढ़ के भी वारुफ़्तगी-ए-दिल क्या हो
कि तुझ को ज़ीस्त का हासिल बना के भूल गया

गुमान जिस पे रहा मंज़िलों का इक मुद्दत
वो रहगुज़ार भी मंज़िल में आ के भूल गया

अब ऐसी हैरत-ओ-वारफ़्तगी को क्या कहिए
दुआ को हाथ उठाए उठा के भूल गया

दिल-ओ-जिगर हैं कि गर्मी से पिघले जाते हैं
कोई चराग़-ए-तमन्ना जला के भूल गया

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ye hai meri kab naseebi

वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी

मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है
ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी

इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-‘रूमी’ कभी पेच-ओ-ताब-ए-‘राज़ी’

वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी

न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी

नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी

कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी

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moziza aisa bhi hota hai

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हवा ऐसा भी होता है

सुनाई दे न ख़ुद अपनी सदा ऐसा भी होता है
मियाँ तंहाई का इक सानेहा ऐसा भी होता है

छिड़े हैं तार दिल के ख़ाना-बर्बादी के नग़्मे हैं
हमारे घर में साहिब रत-जगा ऐसा भी होता है

बहुत हस्सास होने से भी शक को राह मिलती है
कहीं अच्छा तो लगता है बुरा ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बाँ पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ाइक़ा ऐसा भी होता है

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meri ek koshish hai pane ki

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए

रेत मेरी उम्र मैं बच्चा निराले मेरे खेल
मैं ने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए

वक़्त होंटों से मिरे वो भी खुरच कर ले गया
इक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए

छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए

देर तक हँसता रहा उन पर हमारा बचपना
तजरबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

मैं ‘ज़फ़र’ ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए

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dekhe kareeb se bhi

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक माँगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रख के और मिरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तिरे ख़याल की बनती है इक धनक
सूरज सा आईने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाए अजब नहीं
लाशों के दरमियाँ कोई रस्ता दिखाई दे

क्या कम है कि वजूद के सन्नाटे में ‘ज़फ़र’
इक दर्द की सदा है कि ज़िंदा दिखाई दे

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