be takalluf bosa-e-julf hai

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए

दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप
इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए

पाँव पकड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो
वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए

ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक
मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए

ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार
एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए

कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे
और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए

फ़स्ल-ए-गुल के आते ही ‘अकबर’ हुए बेहोश आप
खोलिए आँखों को साहब जाम-ए-सहबा लीजिए

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unhe nigah hai apne jamal ki

उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़

तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़
नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़

लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में
ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़

तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं
वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़

बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है
ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़

कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से
तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़

निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की
वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़

निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर
न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़

क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को
नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़

यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई
यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़

ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो
बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़

ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा
घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़

जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना
चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़

हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ ‘अकबर’
तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़

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na hasil hua sabr-o-alam

न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का

मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम
भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का

फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में
मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का

हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में
ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का

ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें
यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का

धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो
हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का

जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है
तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का

ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब
जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का

पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त
गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का

तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा
कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का

दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो ‘अकबर’
तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का

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tera chup rahna kya baith gya

तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया

यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया

इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ
उस ने जिस को भी जाने का कहा बैठ गया

अपना लड़ना भी मोहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं
चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया

उस की मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने
इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया

बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ
दो क़दम जो भी मिरे साथ चला बैठ गया

बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया

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kise khabar hai ki umr kat rahi hai

किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है

अजीब दुख है हम उस के हो कर भी उस को छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बट रही है

मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है

मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझ से लिपट रही है

ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है

सो इस तअ’ल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंध छट रही है

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kahte hai jise musalma bo tumhi to ho

कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो
जाती है जिस पे जान मिरी जाँ तुम्हीं तो हो

मतलब की कह रहे हैं वो दाना हमीं तो हैं
मतलब की पूछते हो वो नादाँ तुम्हीं तो हो

आता है बाद-ए-ज़ुल्म तुम्हीं को तो रहम भी
अपने किए से दिल में पशेमाँ तुम्हीं तो हो

पछताओगे बहुत मिरे दिल को उजाड़ कर
इस घर में और कौन है मेहमाँ तुम्हीं तो हो

इक रोज़ रंग लाएँगी ये मेहरबानियाँ
हम जानते थे जान के ख़्वाहाँ तुम्हीं तो हो

दिलदार ओ दिल-फ़रेब दिल-आज़ार ओ दिल-सिताँ
लाखों में हम कहेंगे कि हाँ हाँ तुम्हीं तो हो

करते हो ‘दाग़’ दूर से बुत-ख़ाने को सलाम
अपनी तरह के एक मुसलमाँ तुम्हीं तो हो

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tumhare khat me salam kiska tha

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था

न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो वो तज़्किरा-ए-ना-तमाम किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तू ने ब-दिल वो पयाम किस का था

उठाई क्यूँ न क़यामत अदू के कूचे में
लिहाज़ आप को वक़्त-ए-ख़िराम किस का था

गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ
ख़याल दिल को मिरे सुब्ह ओ शाम किस का था

हमें तो हज़रत-ए-वाइज़ की ज़िद ने पिलवाई
यहाँ इरादा-ए-शर्ब-ए-मुदाम किस का था

अगरचे देखने वाले तिरे हज़ारों थे
तबाह-हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किस का था

वो कौन था कि तुम्हें जिस ने बेवफ़ा जाना
ख़याल-ए-ख़ाम ये सौदा-ए-ख़ाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आम वो करते ये नाम किस का था

हर इक से कहते हैं क्या ‘दाग़’ बेवफ़ा निकला
ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

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na jane kya hua hai

न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
तमाम शहर को शफ़्फ़ाफ़ देखने वाले

गिरफ़्त का कोई पहलू नज़र नहीं आता
मलूल हैं मिरे औसाफ़ देखने वाले

सिवाए राख कोई चीज़ भी न हाथ आई
कि हम थे वरसा-ए-असलाफ़ देखने वाले

हमेशा बंद ही रखते हैं ज़ाहिरी आँखें
ये तीरगी में बहुत साफ़ देखने वाले

मोहब्बतों का कोई तजरबा नहीं रखते
हर एक साँस का इसराफ़ देखने वाले

अब उस के बा’द ही मंज़र है संग-बारी का
सँभल के बारिश-ए-अल्ताफ़ देखने वाले

गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी ‘शाहिद’
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले

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ye khuda tera sahara hai

ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे

तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
आ किसी दिन मिरे एहसास को पैकर कर दे

क़ैद होने से रहीं नींद की चंचल परियाँ
चाहे जितना भी ग़िलाफ़ों को मोअत्तर कर दे

दिल लुभाते हुए ख़्वाबों से कहीं बेहतर है
एक आँसू कि जो आँखों को मुनव्वर कर दे

और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मिरे पैरों के बराबर कर दे

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