mai sakde tujhpe ho

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रूठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तम्हीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मिरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
कि इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद ‘जमील’
अजब नहीं कि बदल जाए रुत ज़माने की

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badal jate hai dil

बदल जाते हैं दिल हालात जब करवट बदलते हैं
मोहब्बत के तसव्वुर भी नए साँचों में ढलते हैं

तबस्सुम जब किसी का रूह में तहलील होता है
तो दिल की बाँसुरी से नित नए नग़्मे निकलते हैं

मोहब्बत जिन के दिल की धड़कनों को तेज़ रखती है
वो अक्सर वक़्त की रफ़्तार से आगे भी चलते हैं

उजाले के पुजारी मुज़्महिल क्यूँ हैं अंधेरे से
कि ये तारे निगलते हैं तो सूरज भी उगलते हैं

इन्ही हैरत-ज़दा आँखों से देखे हैं वो आँसू भी
जो अक्सर धूप में मेहनत की पेशानी से ढलते हैं

मोहब्बत तो तलब की राह में इक ऐसी ठोकर है
कि जिस से ज़िंदगी की रेत में ज़मज़म उबलते हैं

ग़ुबार-ए-कारवाँ हैं वो न पूछो इज़्तिराब उन का
कभी आगे भी चलते हैं कभी पीछे भी चलते हैं

दिलों के नाख़ुदा उठ कर सँभालें कश्तियाँ अपनी
बहुत से ऐसे तूफ़ाँ ‘मज़हरी’ के दिल में पलते हैं

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mohabbat hai mujhko tumse

कहो न ये कि मोहब्बत है तीरगी से मुझे
डरा दिया है पतंगों ने रौशनी से मुझे

सफ़ीना शौक़ का अब के जो डूब कर उभरा
निकाल ले गया दरिया-ए-बे-ख़ुदी से मुझे

है मेरी आँख में अब तक वही सफ़र का ग़ुबार
मिला जो राह में सहरा-ए-आगही से मुझे

ख़िरद इन्ही से बनाती है रहबरी का मिज़ाज
ये तजरबे जो मयस्सर हैं गुमरही से मुझे

अभी तो पाँव से काँटे निकालता हूँ मैं
अभी निकाल न गुलज़ार-ए-ज़िंदगी से मुझे

ज़बान-ए-हाल से कहता है नाज़-ए-इश्वा-गरी
हया छुपा न सकी चश्म-ए-मज़हरी से मुझे

बराए दाद-ए-सुख़न कासा-ए-सवाल हो दिल
ख़ुदा बचाए ‘जमील’ इस गदागरी से मुझे

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tera husn bhi hai bahana

तिरा हुस्न भी बहाना मिरा इश्क़ भी बहाना
ये लतीफ़ इस्तिआरे न समझ सका ज़माना

मैं निसार-ए-दस्त-ए-नाज़ुक जो उठाए नाज़िशाना
कि सँवर गईं ये ज़ुल्फ़ें तो सँवर गया ज़माना

तिरी ज़िंदगी तबस्सुम मिरी ज़िंदगी तलातुम
मिरी ज़िंदगी हक़ीक़त तिरी ज़िंदगी फ़साना

तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म ने नए सिलसिले निकाले
मिरी सीना-चाकियों से जो बना मिज़ाज-ए-शाना

तिरा नाज़-ए-किब्रियाई भी मक़ाम-ए-ग़ौर में है
कि घटा दिया है सज्दों ने वक़ार-ए-आस्ताना

मैं दरून-ए-ख़ाना आ कर भी लिए हूँ दाग़-ए-सज्दा
है अभी मिरी जबीं पर असर-ए-बरून-ए-ख़ाना

कभी राह मैं ने बदली तो ज़मीं का रक़्स बदला
कभी साँस ली ठहर कर तो ठहर गया ज़माना

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koi to sakl mohabbat me hai

कोई तो शक्ल मोहब्बत में साज़गार आए
हँसी नहीं है तो रोने से ही क़रार आए

है एक ने’मत-ए-उज़मा ग़म-ए-मोहब्बत भी
मगर ये शर्त कि इंसाँ को साज़गार आए

जुनून-ए-दश्त-पसंदी बताए देता है
गुज़ारनी थी जो घर में वो हम गुज़ार आए

गुज़ारनी है मुझे उम्र तेरे क़दमों में
मुझे न क्यूँ तिरे वा’दों पे ए’तिबार आए

तुम्हारी बज़्म से आ कर वही ख़याल रहा
हम एक बार गए तुम हज़ार बार आए

निगाह-ए-दोस्त कोई और बात है वर्ना
तू बे-क़रार करे और मुझे क़रार आए

है मुतमइन भी तो किस किस उमीद-ओ-बीम के साथ
वो ना-मुराद जिसे लुत्फ़-ए-इंतिज़ार आए

बता गई है जो मुझ को वो बे-क़रार निगाह
न कह सकूँगा अगर आज भी क़रार आए

ये इम्तियाज़ है ‘ग़ालिब’ के बा’द ‘आली’ का
कि जिस पे आप मरे हैं उसे भी मार आए

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mujhe tera intizaar hai

बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतिज़ार है आ जा
और अब तो ख़ास वही मौसम-ए-बहार है आ जा

कहाँ ये होश कि उस्लूब-ए-ताज़ा से तुझे लिखूँ
कि रूह तेरे लिए सख़्त बे-क़रार है आ जा

गुज़र चली हैं बहुत ग़म की शोरिशें भी हदों से
मगर अभी तो तिरा सब पे इख़्तियार है आ जा

वो तेरी याद कि अब तक सुकून-ए-क़ल्ब-ए-तपाँ थी
तिरी क़सम है कि अब वो भी नागवार है आ जा

ग़ज़ल के शिकवे ग़ज़ल के मुआ’मलात जुदा हैं
मिरी ही तरह से तो भी वफ़ा-शिआ’र है आ जा

बदल रहा हो ज़माना मगर जहान-ए-तमन्ना
तिरे लिए तो अबद तक भी साज़गार है आ जा

हज़ार तरह के अफ़्कार दिल को रौंद रहे हैं
मुक़ाबले में तिरे रंज-ए-रोज़गार है आ जा

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