alfaaz nhi milte sarkar ke

अल्फ़ाज़ नहीं मिलते सरकार को क्या कहिये
जिब्रील सलामी दे दरबार को क्या कहिये

बस एक पलक झपकी मेअराज हुई पूरी
उस साहिबे-रिफ़अत की रफ़्तार को क्या कहिये

एक एक सहाबी पर फ़िरदौस भी नाज़ां है
सिद्दीक़ उमर उस्मां क़र्रार को क्या कहिये

वो ग़ार के जिसने एक तारीख़ बनाई है
उस ग़ार को क्या कहिये, उस यार को क्या कहिये

नज़्मी तेरी नातों का अंदाज़ निराला है
मज़मून अनोखे हैं, अशआर को क्या कहिये

अल्फ़ाज़ नहीं मिलते सरकार को क्या कहिये
जिब्रील सलामी दे दरबार को क्या कहिये

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sarkar ko kya bala chand soraj

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं
मुस्तफ़ा जाने-रहमत यक़ीनन रुख़ से पर्दा उठाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

दी सदाक़त अदालत सख़ावत और अता की है शाने सुजाअत
देखो शेरे ख़ुदा बाब-ए-ख़ैबर उँगलियों पर नचाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

तीर तलवार बरछी हैं भाले, है पड़े ज़ाहिरन जां के लाले
मुस्कुराते हुवे नन्हें असग़र करबला को हिलाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

आला हज़रत ने ईमां बचाया, इश्क़े-अहमद की रह पर चलाया
सुल्हे-कुल्ली से ताजुश्शरीया आज सब को बचाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

उनको अपनी तरह कहने वालो, पहले साबिर की अज़मत को जानो
बा-ख़ुदा ! देखो अपना जनाज़ा आप खुद ही पढ़ाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

ग़ौसो-ख़्वाजा-रज़ा का करम है, उनके फैज़ान से दम में दम है
इस लिये हम तो अज़हर यक़ीनन सारे आलम पे छाए हुवे हैं

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aa jao gunahgaro

आ जाओ गुनहगारो, बे-ख़ौफ़ चले आओ
सरकार की रहमत तो है आम मदीने में

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
हसीं दुनिया के सब मंज़र निग़ाहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

मिले जो भीक आक़ा के दरे दौलत से मंगतों को
तो शाहाने ज़माना की सखाएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

जो साइल मोहसिने आज़म के एहसां याद रखते हैं
उन्हें सब ताजदारों की अताएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

जो चूमे नक़्शे पा उनके सुरूरे क़ल्ब मिलता है
हो निकली दर्द में जितनी वो आहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

छुपा लेते हैं जिस को भी मेरे सरकार दामन में
उन्हें आग़ोशे मादर की पनाहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

बसा हो नज़र में जिस की रुखे महबूब का जल्वा
उसे शम्सो क़मर की सब ज़ियाएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

मैं देखूं अपने जुर्मो को तो दिल मेरा दहल जाए
जो रहमत उनकी याद आई सजाएं भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

सुनू जब नात मैं अहमद शबे असरा के दूल्हा की
मुझे अग़्यार की सिफ़्तो सनाएँ भूल जाती है

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wo shahre mohabbat jaha mustafa hain

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है
वो सोने से कंकर, वो चांदी सी मिट्टी
नज़र में बसाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जो पूछा नबी ने के कुछ घर भी छोड़ा
तो सिद्दीक़े-अकबर के होंटो पे आया
वहाँ माल-ओ-दौलत की क्या है हक़ीक़त
जहाँ जां लुटाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जिहादे-मुहब्बत की आवाज़ गूंजी
कहा हन्ज़ला ने ये दुल्हन से अपनी
इजाज़त अगर दो तो जाम-ए-शहादत
लबों से लगाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

वो नन्हा सा असग़र, वो एड़ी रगड़कर
येही कह रहा है वो ख़ैमे में रो कर
ए बाबा ! मैं पानी का प्यासा नहीं हूँ
मेरा सर कटाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

सितारों से ये चाँद कहता है हर दम
तुम्हें क्या पता है वो टुकड़ों का आलम
इशारे में आक़ा के इतना मज़ा था
के फिर टूट जानें को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जो देखा है रू-ए-जमाले-रिसालत
तो ताहिर ! उमर मुस्तफ़ा से ये बोले
बड़ी आप से दुश्मनी थी मगर अब
ग़ुलामी में आने को दिल चाहता है

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ghause azam ka diwana

ग़ौसे आज़म का दीवाना
वो है ख़्वाजा का मस्ताना
जो मुहम्मद पे दिल से फ़िदा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

दसवीं तारीख थी, माहे शव्वाल था
घर नक़ी खान के बेटा पैदा हुवा
नाम अहमद रज़ा जिस का रखा गया
आला हज़रत ज़माने का वो बन गया
वो मुजद्दिदे-ज़माना, इल्मो-हिक़मत का खज़ाना
जिस ने बचपन में फ़तवा दिया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब वो पैदा हुवा नूरी साए तले
वादी-ए-नज्द में आ गए ज़लज़ले
कैसे उसकी फ़ज़ीलत का सूरज ढले
जिस की अज़मत का सिक्का अरब में चले
जिस का खाएं उसका गाएं, उस का नारा हम लगाएं
जिस का नारा अरब में लगा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब रज़ा खां को बैअत की ख़्वाहिश हुई
पहुंचे मारेहरा और उम्र बाइस की थी
फैज़े-बरकात से ऐसी बरकत मिली
साथ बैअत के फ़ौरन ख़िलाफ़त मिली
आला हज़रत उनको तन्हा सिर्फ मैं ही नहीं कहता
अच्छे अच्छों को कहना पड़ा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

उस मुजद्दिद ने लिखा है ऐसा सलाम
जिस को कहती है दुनिया इमामुल-कलाम
पढ़ रहे हैं फिरिश्ते जिसे सुब्हो-शाम
मुस्तफ़ा जाने-रेहमत पे लाखो सलाम
प्यारा प्यारा ये सलाम, किस ने लिखा ये कलाम?
पूछते क्या हो सब को पता है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

मसलके बू-हनीफ़ा का एलान है
मसलके आला हज़रत मेरी शान है
जो उलझता है इस से वो ताबान है
वो तो इन्सां नहीं बल्कि शैतान है
बू-हनीफ़ा ने जो लिखा आला हज़रत ने बताया
कौन कहता है मसलक नया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

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batan ki sarjami se ishq

वतन की सर-ज़मीं से इश्क़ ओ उल्फ़त हम भी रखते हैं
खटकती जो रहे दिल में वो हसरत हम भी रखते हैं

ज़रूरत हो तो मर मिटने की हिम्मत हम भी रखते हैं
ये जुरअत ये शुजाअत ये बसालत हम भी रखते हैं

ज़माने को हिला देने के दावे बाँधने वालो
ज़माने को हिला देने की ताक़त हम भी रखते हैं

बला से हो अगर सारा जहाँ उन की हिमायत पर
ख़ुदा-ए-हर-दो-आलम की हिमायत हम भी रखते हैं

बहार-ए-गुलशन-ए-उम्मीद भी सैराब हो जाए
करम की आरज़ू ऐ अब्र-ए-रहमत हम भी रखते हैं

गिला ना-मेहरबानी का तो सब से सुन लिया तुम ने
तुम्हारी मेहरबानी की शिकायत हम भी रखते हैं

भलाई ये कि आज़ादी से उल्फ़त तुम भी रखते हो
बुराई ये कि आज़ादी से उल्फ़त हम भी रखते हैं

हमारा नाम भी शायद गुनहगारों में शामिल हो
जनाब-ए-‘जोश’ से साहब सलामत हम भी रखते हैं

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samunder me utarta ho

समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से
कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरी यादों की ख़ुश्बू खिड़कियों में रक़्स करती है
तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से
किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

मैं सारा दिन बहुत मसरूफ़ रहता हूँ मगर जूँही
क़दम चौखट पे रखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हर इक मुफ़्लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं
कोई चेहरा भी पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

बड़े लोगों के ऊँचे बद-नुमा और सर्द महलों को
ग़रीब आँखों से तकता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरे कूचे से अब मेरा तअ’ल्लुक़ वाजिबी सा है
मगर जब भी गुज़रता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर
‘वसी’ मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

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Jo to nhi to zindagi me kya h

तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा

कीजिए क्या गुफ़्तुगू क्या उन से मिल कर सोचिए
दिल-शिकस्ता ख़्वाहिशों का ज़ाइक़ा रह जाएगा

दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे
सब धुआँ हो जाएँगे इक वाक़िआ रह जाएगा

ये भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर
यूँ भी होगा ख़ुद उसी में इक ख़ला रह जाएगा

दाएरे इंकार के इक़रार की सरगोशियाँ
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जाएगा

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teri umeed tera intijar

तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है

किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तिरे सबब से है

हुआ है जब से दिल-ए-ना-सुबूर बे-क़ाबू
कलाम तुझ से नज़र को बड़े अदब से है

अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है

कहाँ गए शब-ए-फ़ुर्क़त के जागने वाले
सितारा-ए-सहरी हम-कलाम कब से है

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Tumhari yaad ke jab

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं

हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं

सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं

वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं

दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मोहर लगती है
तो ‘फ़ैज़’ दिल में सितारे उतरने लगते हैं

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