ghause azam ka diwana

ग़ौसे आज़म का दीवाना
वो है ख़्वाजा का मस्ताना
जो मुहम्मद पे दिल से फ़िदा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

दसवीं तारीख थी, माहे शव्वाल था
घर नक़ी खान के बेटा पैदा हुवा
नाम अहमद रज़ा जिस का रखा गया
आला हज़रत ज़माने का वो बन गया
वो मुजद्दिदे-ज़माना, इल्मो-हिक़मत का खज़ाना
जिस ने बचपन में फ़तवा दिया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब वो पैदा हुवा नूरी साए तले
वादी-ए-नज्द में आ गए ज़लज़ले
कैसे उसकी फ़ज़ीलत का सूरज ढले
जिस की अज़मत का सिक्का अरब में चले
जिस का खाएं उसका गाएं, उस का नारा हम लगाएं
जिस का नारा अरब में लगा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब रज़ा खां को बैअत की ख़्वाहिश हुई
पहुंचे मारेहरा और उम्र बाइस की थी
फैज़े-बरकात से ऐसी बरकत मिली
साथ बैअत के फ़ौरन ख़िलाफ़त मिली
आला हज़रत उनको तन्हा सिर्फ मैं ही नहीं कहता
अच्छे अच्छों को कहना पड़ा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

उस मुजद्दिद ने लिखा है ऐसा सलाम
जिस को कहती है दुनिया इमामुल-कलाम
पढ़ रहे हैं फिरिश्ते जिसे सुब्हो-शाम
मुस्तफ़ा जाने-रेहमत पे लाखो सलाम
प्यारा प्यारा ये सलाम, किस ने लिखा ये कलाम?
पूछते क्या हो सब को पता है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

मसलके बू-हनीफ़ा का एलान है
मसलके आला हज़रत मेरी शान है
जो उलझता है इस से वो ताबान है
वो तो इन्सां नहीं बल्कि शैतान है
बू-हनीफ़ा ने जो लिखा आला हज़रत ने बताया
कौन कहता है मसलक नया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है