Farman-e-Ali

हजरत अली ने फरमाया ।

“जो लोग सिर्फ तुम्हे काम के वक़्त याद करते हे
उन लोगो के काम ज़रूर आओ क्यों के वो
अंधेरो में रौशनी ढूँढ़ते हे और वो रौशनी तुम हो”
हज़रत अली

“हमेशा समझोता करना सीखो क्यूंकि थोडा सा झुक जाना
किसी रिश्ते का हमेशा के लिए टूट जाने से बेहतर है हज़रत अली”

“अगर कोई शख्स अपनी भूख मिटाने के लिए रोटी चोरी करे
तो चोर के हाथ काटने के बजाए बादशाह के हाँथ काटे जाए। हज़रत अली…

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Insa Ke Bas Ka Kaam Nhi

अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत आम नहीं

ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम नहीं

यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल नाकाम नहीं
तस्कीन है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं

आना है जो बज़्मे-जानाँ में पिन्दारे-ख़ुदी को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद का काम नहीं

इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं

सब जिसको असीरी कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम नहीं

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sheikh abdul qadir jilani family tree

Hajrat Ghause Azam Ka Gharana (Family Tree)

HAZRAT Ghaus E Azam Shaykh Abdul Qadir al-Jilani Alayhi Rahma
Son of Syed Abu Saleh Moosa Jangi Dos,
Son of Syed Abdullah Al-Jeeli,
Son of Syed Yahya Al-Zahid,
Son of Syed Muhammad,
Son of Syed Dawood,
Son of Syed Moosa,
Son of Syed Abdullah,
Son of Syed Moosa-Ul-Jown,
Son of Syed Abdullah Al-Hehadh,
Son of Syed Hasan Massna,
Son of HAZRAT IMAM HASAN MUJTABA (ALAIHIS SALAAM)
Son of HAZRAT SYEDNA ALI IBN ABI TALIB karramallahu wajhahu,

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Chamatkar – Munshi Prem Chandra

बी.ए. पास करने के बाद चन्द्रप्रकाश को एक टयूशन करने के सिवा और कुछ न सूझा। उसकी माता पहले ही मर चुकी थी, इसी साल पिता का भी देहान्त हो गया और प्रकाश जीवन के जो मधुर स्वप्न देखा करता था, वे सब धूल में मिल गये। पिता ऊँचे ओहदे पर थे, उनकी कोशिश से चन्द्रप्रकाश को कोई अच्छी जगह मिलने की पूरी आशा थी; पर वे सब मनसूबे धरे रह गये और अब गुजर-बसर के लिए वही 30) महीने की टयूशन रह गई। पिता ने कुछ सम्पत्ति भी न छोड़ी, उलटे वधू का बोझ और सिर पर लाद दिया और स्त्री भी मिली, तो पढ़ी-लिखी, शौकीन, जबान की तेज जिसे मोटा खाने और मोटा पहनने से मर जाना कबूल था। चन्द्रप्रकाश को 30) की नौकरी करते शर्म तो आयी; लेकिन ठाकुर साहब ने रहने का स्थान देकर उसके आँसू पोंछ दिये। यह मकान ठाकुर साहब के मकान से बिलकुल मिला हुआ था पक्का, हवादार, साफ-सुथरा और जरूरी सामान से लैस। ऐसा मकान 20) से कम पर न मिलता, काम केवल दो घंटे का। लड़का था तो लगभग उन्हीं की उम्र का; पर बड़ा कुन्दजेहन, कामचोर। अभी नवें दरजे में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात यह कि ठाकुर और ठाकुराइन दोनों प्रकाश का बहुत आदर करते थे, बल्कि उसे लड़का ही समझते थे। वह नौकर नहीं, घर का आदमी था और घर के हर एक मामले में उसकी सलाह ली जाती थी। ठाकुर साहब अँगरेजी नहीं जानते थे। उनकी समझ में अँगरेजीदाँ लौंडा भी उनसे ज्यादा बुद्धिमान, चतुर और तजरबेकार था।

सन्ध्या का समय था। प्रकाश ने अपने शिष्य वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठायी, तो ठाकुराइन ने आकर कहा, अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करनी है।

प्रकाश ने मन में सोचा आज कैसी सलाह है, वीरेन्द्र के सामने क्यों नहीं कहा ? उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा-तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू को ब्याह दूं ? एक बहुत अच्छे घर से सन्देशा आया है।

प्रकाश ने मुस्कराकर कहा- यह तो बीरू बाबू ही से पूछिए।

‘नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।’

प्रकाश ने असमंजस में पड़कर कहा- मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ ? उनका बीसवाँ साल तो है; लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका।

‘तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?’

‘जैसा आप उचित समझें। मैंने तो दोनों बातें कह दीं।’

‘तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय।’

‘मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।’

‘सब तैयारियाँ तुम्हीं को करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।’

‘तो मैं इनकार कब करता हूँ।’

रोटी की खैर मनोनवाले शिक्षित युवकों में एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमजोरी थी।

बात पक्की हो गयी और विवाह का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन मनुष्यों में थे, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री, उनके साठ साल के अनुभव से कहीं मूल्यवान् थी। विवाह का सारा आयोजन प्रकाश के हाथों में था। दस-बारह हजार रुपये खर्च करने का अधिकार कुछ कम गौरव की बात न थी। देखते-देखते ही फटेहाल युवक जिम्मेदार मैनेजर बन बैठा। कहीं कपड़ेवाला उसे सलाम करने आया है; कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए है; कहीं गैस और शामियानेवाला खुशामद कर रहा है। वह चाहता, तो दो-चार सौ रुपये बड़ी आसानी से बना लेता, लेकिन इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या दगा करता, जिसने सबकुछ उसी पर छोड़ दिया था। पर जिस दिन उसने पाँच हजार के जेवर खरीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा।

घर आकर चम्पा से बोला, हम तो यहाँ रोटियों के मुहताज हैं और दुनिया में ऐसे आदमी पड़े हुए हैं जो हजारों-लाखों रुपये के जेवर बनवा डालते हैं। ठाकुर साहब ने आज बहू के चढ़ावे के लिए पाँच हजार के जेवर खरीदे। ऐसी-ऐसी चीजें कि देखकर आँखें ठण्डी हो जायँ। सच कहता हूँ, बाज चीजों पर तो आँख नहीं ठहरती थी।

चम्पा ईर्ष्या-जनित विराग से बोली- ऊँह, हमें क्या करना है ? जिन्हें ईश्वर ने दिया है, वे पहनें। यहाँ तो रोकर मरने ही के लिए पैदा हुए हैं।

चन्द्रप्रकाश – इन्हीं लोगों की मौज़ है। न कमाना, न धमाना। बाप-दादा छोड़ गये हैं, मजे से खाते और चैन करते हैं। इसी से कहता हूँ, ईश्वर बड़ा अन्यायी है।

चम्पा- अपना-अपना पुरुषार्थ है, ईश्वर का क्या दोष ? तुम्हारे बाप-दादा छोड़ गये होते, तो तुम भी मौज करते। यहाँ तो रोटियाँ चलना मुश्किल हैं, गहने-कपड़े को कौन रोये। और न इस जिन्दगी में कोई ऐसी आशा ही है। कोई गत की साड़ी भी नहीं रही कि किसी भले आदमी के घर जाऊँ, तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच में हूँ कि ठकुराइन के यहाँ ब्याह में कैसे जाऊँगी। सोचती हूँ, बीमार पड़ जाती तो जान बचती।

यह कहते-कहते चम्पा की आँखें भर आयीं।

प्रकाश ने तसल्ली दी- साड़ी तुम्हारे लिए लाऊँ। अब क्या इतना भी न कर सकूँगा ? मुसीबत के ये दिन क्या सदा बने रहेंगे ? जिन्दा रहा, तो एक दिन तुम सिर से पाँव तक जेवरों से लदी रहोगी।

चम्पा मुस्कराकर बोली- चलो, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। निबाह होता जाय, यही बहुत है। गहनों की साध नहीं है।

प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर लज्जा और दु:ख से सिर झुका लिया। चम्पा उसे इतना पुरुषार्थहीन समझती है।

रात को दोनों भोजन करके लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों में बसे हुए थे- इस शहर में ऐसे बढ़िया गहने बनते हैं, मुझे इसकी आशा न थी।

चम्पा ने कहा- क़ोई और बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है।

‘वैसी चीजें तुम पहनो, तो रानी मालूम होने लगो।’

‘गहनों से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है ? तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दीखने लगती हैं।’

‘ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमें से कोई चीज चम्पा के लिए भी लेते जाओ।’

‘तुम भी कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो ?’

‘इसमें बचपने की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।’

‘मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी नहीं देखा, जो अपनी बहू के गहने किसी गैर को दे दे।’

‘मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं। मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इन्तजाम कर रहा हूँ। अगर सौ-दो सौ की कोई चीज दे देते, तो वह निष्फल न जाती। मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उनमें उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।’

रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार ही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है।

सहसा प्रकाश चारपाई से उठ खड़ा हुआ। उसे चम्पा का आभूषणहीन अंग देखकर दया आयी। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हर एक चीज के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया। ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पाँच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढ़कर ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था।

उसने सोचा पहले जीने से उतरकर ठाकुर साहब के कमरे में चलूँ। अगर वह जाग गये, तो जोर से हँसूँगा और कहूँगा-क़ैसा चरका दिया, या कह दूँगा- मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखायी दिया, इसलिए मैं भी उसके पीछे-पीछे आया कि देखूँ, यह क्या करता है। अगर सन्दूक की कुंजी मिल गयी तो फिर फतह है। किसी को मुझ पर सन्देह ही न होगा। सब लोग नौकरों पर सन्देह करेंगे, मैं भी कहूँगा- साहब ! नौकरों की हरकत है, इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है ? मैं बेदाग बच जाऊँगा ! शादी के बाद कोई दूसरा घर लूँगा। फिर धीरे-धीरे एक-एक चीज चम्पा को दूंगा,जिसमें उसे कोई सन्देह न हो।

फिर भी वह जीने से उतरने लगा तो उसकी छाती धड़क रही थी।

धूप निकल आयी थी। प्रकाश अभी सो रहा था कि चम्पा ने उसे जगाकर कहा- बड़ा गजब हो गया। रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गयी। चोर गहने की सन्दूकची उठा ले गया।

प्रकाश ने पड़े-पड़े पूछा- क़िसी ने पकड़ा नहीं चोर को ?

‘किसी को खबर भी हो ! वह सन्दूकची ले गया, जिसमें ब्याह के गहने रखे थे। न-जाने कैसे कुंजी उड़ा ली और न-जाने कैसे उसे मालूम हुआ कि इस सन्दूक में सन्दूकची रखी है !’

‘नौकरों की कार्रवाई होगी। बाहरी चोर का यह काम नहीं है।’

‘नौकर तो उनके तीनों पुराने हैं।’

‘नीयत बदलते क्या देर लगती है ! आज मौका देखा, उठा ले गये !’

‘तुम जाकर जरा उन लोगों को तसल्ली तो दो। ठाकुराइन बेचारी रो रही थीं। तुम्हारा नाम ले-लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन गहनों के लिए दौड़ा, एक-एक चीज अपने सामने जँचवायी और चोर दाढ़ीजारों ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।’

प्रकाश चटपट उठ बैठा और घबड़ाता हुआ-सा जाकर ठाकुराइन से बोला- यह तो बड़ा अनर्थ हो गया माताजी, मुझसे तो अभी-अभी चम्पा ने कहा।

ठाकुर साहब सिर पर हाथ रखे बैठे हुए थे। बोले- क़हीं सेंध नहीं, कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाजे की चूल नहीं उतरी। समझ में नहीं आता, चोर आया किधर से !

ठाकुराइन ने रोकर कहा- मैं तो लुट गयी भैया, ब्याह सिर पर खड़ा है, कैसे क्या होगा, भगवान् ! तुमने दौड़-धूप की थी, तब कहीं जाके चीजें आयी थीं। न-जाने किस मनहूस सायत से लग्न आयी थी।

प्रकाश ने ठाकुर साहब के कान में कहा- मुझे तो किसी नौकर की शरारत मालूम होती है।

ठाकुराइन ने विरोध किया- अरे नहीं भैया, नौकरों में ऐसा कोई नहीं। दस-दस हजार रुपये यों ही ऊपर रखे रहते थे, कभी एक पाई भी नहीं गयी।

ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़कर कहा- तुम क्या जानो, आदमी का मन कितना जल्द बदल जाया करता है। जिसने अब तक चोरी नहीं की, वह कभी चोरी न करेगा, यह कोई नहीं कह सकता। मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा और एक-एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पड़ेंगे तो आप ही कबूलेंगे। प्रकाश ने पुलिस का घर में आना खतरनाक समझा। कहीं उन्हीं के घर में तलाशी ले, तो अनर्थ ही हो जाय। बोले- पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना व्यर्थ है। पुलिस माल तो न बरामद कर सकेगी। हाँ, नौकरों को मार-पीट भले ही लेगी। कुछ नजर भी उसे चाहिए, नहीं तो कोई दूसरा ही स्वाँग खड़ा कर देगी। मेरी तो सलाह है कि एक-एक नौकर को एकान्त में बुलाकर पूछा जाय।

ठाकुर साहब ने मुँह बनाकर कहा- तुम भी क्या बच्चों की-सी बात करते हो, प्रकाश बाबू ! भला चोरी करने वाला अपने आप कबूलेगा? तुम मारपीट भी तो नहीं करते। हाँ, पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी फजूल मालूम होता है। माल बरामद होने से रहा, उलटे महीनों की परेशानी हो जायेगी।

प्रकाश – लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा।

ठाकुर – क़ोई लाभ नहीं। हाँ, अगर कोई खुफिया पुलिस हो, जो चुपके-चुपके पता लगावे, तो अलबत्ता माल निकल आये; लेकिन यहाँ ऐसी पुलिस कहाँ ? तकदीर ठोंककर बैठ रहो और क्या।’

प्रकाश – ‘आप बैठ रहिए; लेकिन मैं बैठने वाला नहीं। मैं इन्हीं नौकरों के सामने चोर का नाम निकलवाऊँगा !

ठाकुराइन – नौकरों पर मुझे पूरा विश्वास है। किसी का नाम निकल भी आये, तो मुझे सन्देह ही रहेगा। किसी बाहर के आदमी का काम है। चाहे जिधर से आया हो; पर चोर आया बाहर से। तुम्हारे कोठे से भी तो आ सकता है!

ठाकुर- हाँ, जरा अपने कोठे पर तो देखो, शायद कुछ निशान मिले। कल दरवाजा तो खुला नहीं रह गया ?

प्रकाश का दिल धड़कने लगा। बोला- मैं तो दस बजे द्वार बन्द कर लेता हूँ। हाँ, कोई पहले से मौका पाकर कोठे पर चला गया हो और वहाँ छिपा बैठा रहा हो, तो बात दूसरी है।

तीनों आदमी छत पर गये तो बीच की मुँड़ेर पर किसी के पाँव की रगड़ के निशान दिखाई दिये। जहाँ पर प्रकाश का पाँव पड़ा था वहाँ का चूना लग जाने के कारण छत पर पाँव का निशान पड़ गया था। प्रकाश की छत पर जाकर मुँड़ेर की दूसरी तरफ देखा तो वैसे ही निशान वहाँ भी दिखाई दिये। ठाकुर साहब सिर झुकाये खड़े थे, संकोच के मारे कुछ कह न सकते थे। प्रकाश ने उनके मन की बात खोल दी- इससे तो स्पष्ट होता है कि चोर मेरे ही घर में से आया। अब तो कोई सन्देह ही नहीं रहा।

ठाकुर साहब ने कहा- हाँ, मैं भी यही समझता हूँ; लेकिन इतना पता लग जाने से ही क्या हुआ। माल तो जाना था, सो गया। अब चलो, आराम से बैठें ! आज रुपये की कोई फिक्र करनी होगी।

प्रकाश – मैं आज ही वह घर छोड़ दूंगा।

ठाकुर- क्यों, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं।

प्रकाश – आप कहें; लेकिन मैं समझता हूँ मेरे सिर बड़ा भारी अपराध लग गया। मेरा दरवाजा नौ-दस बजे तक खुला ही रहता है। चोर ने रास्ता देख लिया। संभव है, दो-चार दिन में फिर आ घुसे। घर में अकेली एक औरत सारे घर की निगरानी नहीं कर सकती। इधर वह तो रसोई में बैठी है, उधर कोई आदमी चुपके से ऊपर चढ़ जाय, तो जरा भी आहट नहीं मिल सकती। मैं घूम-घामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे। और शादी के दिनों में तो देर होती ही रहेगी। उधर का रास्ता बन्द हो जाना चाहिए। मैं तो समझता हूँ, इस चोरी की सारी जिम्मेदारी मेरे सिर है।

ठाकुराइन डरीं – तुम चले जाओगे भैया, तब तो घर और फाड़ खायगा।

प्रकाश – क़ुछ भी हो माताजी, मुझे बहुत जल्द घर छोड़ना ही पड़ेगा। मेरी गफ़लत से चोरी हुई, उसका मुझे प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा।

 

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Baba Freed Ka Murid

Ek Martaba Hasan Qawwal Jo Baba Fareed Ka Qawwal Tha Usne Baba Fareed Se Kaha Ki Huzoor Aapke Khalifaon Ko Dekhne Ka Jee Chahata Hai Aur Baba Fareed Se Ijazat Lekar Delhi Pohcha Toh Yaha Hazrat Khwaja Nizamuddin RadiAllahu Anhu Se Mulaqat Huyi, Hazrat Mehboob-e-Ilahi Ne Is Qawwal Ki Bohot Khatir Ki Aur Chalte Samey Bohot Zayada Inaam Diye Iske Baad Hasan Qawwal Ne Kaliyar Ki Raah Li Aur Sochte Huye Jaa Rahe Thae Ki Jab Yaha Se Itna Maal Mila Toh Waha Kitna Milega Kyonki Sabir Paak Toh Damad Hein Aur Bhanje Bhi Hein Aur Khalifae Aazam Bhi Hein Jab Hasan Qawwal Kaliyar Shareef Pohche Toh Dekha Ki Chaaron Taraf Veerani He Veerani Hai, Ek Gular Ka Pedh Khada Hua Hai Aur Sabir-e-Paak Gular Ki Tehni Pakde Khade Hein Aap Khuda Ki Ibadat Mein Mashgool Hein, Hazrat Shamsuddin Ne Kaha Huzoor Paak Pattan Se Hasan Qawwal Aaya Hai, Sabir-e-Paak Ne Apni Aankhen Kholkar Farmaya Kon Hasan Qawwal ? Hasan Qawwal Ne Kaha Baba Fareed Ka Qawwal Sabire Paak Ne Farmaya Kon Fareed ? Hasan Ne Kaha Aapke Peero Murshid Is Par Sabire Paak Ne Farmaya Ki Kya Hamare Peero Murshid Acche Hein ? Ye Keh Kar Sabir-e-Paak Ko Fir Istagraak Ho Gaya, Hazrat Shamsuddin Ne Hasan Qawwal Ki Khatir Ki Yaani Gulron Mein Namak Daal Kar Khilaye Jab Hasan Qawwal Pareshan Ho Gaya Aur Sochne Laga ki Yaha Se Jaun Toh Kaise ? Sabir-e-Paak Toh Istagraak Ki Halat Mein Hein Bina Ijazat Jaun Toh Musibat Na Jaun Toh Musibat Aakhir Kaar Teen Din Baad Kuch Hosh Aaya Hazrat Shamsuddin Ne Kaha Huzoor Hasan Qawwal Jaa Raha Hai Toh Sabir-e-Paak Ne 3 Gulriyan Uthayi Aur Hasan Qawwal Ko Di, Aur Kaha Ki Jao Khuda Hafiz!

Hasan Qawwal Kaliyar Se Paak Pattan Ki Taraf Chal Diya Hasan Qawwal Ko Ye Sab Na Gawar Sa Laga Gulriyan Hifazat Se Rakh Li Ki Ye Sab Baba Fareed Ko Dekhaunga Ki Tumhare Ladle Bhanje Ne Ye Diye Hein Jab Hasan Qawwal Paak Pattan Pohcha Toh Baba Fareed Se Raaste Ki Puri Baat Batayi Mehboob-e-Ilahi Ki Bohot Tareef Kiya Ki Unhone Bohot Acche Acche Khane Khilwae Aur Nazrane Bhi Bohot Dilwae Baba Fareed Ne Farmaya Mere Sabir Ke Pas Bhi Gae Thae Ya Nahi ? Hasan Qawwal Ne Kaha Woh Toh Bade Ghamandi Hein Bole Tak Nahi Baba Fareed Ne Farmaya Sabir Ne Hamare Liye Bhi Kuch Kaha ? Hasan Qawwal Ne Kaha Unhone Aapko Pehchana Tak Nahi, Maine Kaha Ki Mein Baba Fareed Ka Qawwal Hu Toh Kehte Hein Kon Baba Fareed? Jab Maine Kaha Ki Tumhare Murshid Baba Fareed Is Par Kaha Ki Accha Kya Hamare Peero Baba Fareed Acche Hein ? Baba Fareed Ko Ye Baat Sunte He Wajd Ho Gaya Aur Farmaya Mein Aaj Se Sabir Ka Peero Murshid Ho Gaya Hu, Majmae Aam Mein Logon Ne Kaha Ki Kya Aap Isse Pehle Sabir-e-Paak Ke Murshid Nahi Thae? Is Par Baba Fareed Ne Kaha Mein Unka Peer Tha Lekin Ye Jumla Us Samey Sabir Ne Nahi Kaha Tha Balki Ye Sab Alfaaz Kisi Aur Zaat He Ke Thae Hasan Qawwal Ne Baba Fareed Ko Weh Ye Teen Gulriyan Dikhayi Jo Chalte Samey Sabir-e-Paak Ne Hasan Qawwal Ko Diye Thae Baba Fareed Ne Ek Gular Khud Khaya Baaki Do Gular Ke Tukde Karke Logon Mein Bat Diye Jisne Bhi Weh Gular Ke Tukde Khaye Sabhi Ko Qaramati Ahsaas Hua Baba Fareed Ne In Gularon Ke Badle Mein Hasan Qawwal Ko Bohot Sa Dhan Diya Aur Kaha Ki Agar Tu Gular Kha Leta Toh Pata Nahi Kya Se Kya Ho Jata, Hazrat Nizamuddin Auliya Ne Duniyawi Dolat Di Thi Aur Sabir-e-Paak Ne Tumhe Deeni Dolat Di Thi, Ye Tumhara Naseeb Hai Ki Tum Mehrum Rahe.

Reference-[Shan-e-Makhdoom, Pg No- 31]

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Julfe Sarkar Se Jab Chehra Nikalta Goga

जुल्फे सरकार से जब चेहरा निकलता होगा
फिर भला कैसे कोई चाँद को तकता होगा

ऐ हलीमा ये बता तू ने तो देखा होगा
कैसे तुझ से मेरा महबूब लिपटा होगा

क़ाबिले रश्क है सिद्दीक़ तेरा आसु
गार में आप के रुख पर जो टपका होगा

कितनी खुश बख्त है वो गलिया यारो
जिन में बन थान के मेरा महबूब निकलता होगा

जब कभी आप अंधेरे में निकलते होंगे
शबे तारिख में खुर्शीद भी चमकता होगा

मुझे को मालूम है तैबा से जुदाई का असर
की शाम शम्स भी रोते हुए ढलता होगा ।

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