Hazrat Ali Ka Farman

“जो तुम्हारी खामोशी से तुम्हारी तकलीफ का अंदाज़ा न कर सके

उसके सामने ज़ुबान से इज़हार करना सिर्फ़ लफ्ज़ों को बरबाद करना है”

-हज़रत अली

जहा तक हो सके लालच से बचो लालच में जिल्लत ही जिल्लत

हज़रत अली

मुश्किलतरीन काम बहतरीन लोगों के हिस्से में आते हैं.

क्योंकि वो उसे हल करने की सलाहियत रखते हैं “

हज़रत अली

“कम खाने में सेहत है, कम बोलने में समझदारी है और कम सोना इबादत है”

-हज़रत अली

“अक़्लमंद अपने आप को नीचा रखकर बुलंदी हासिल करता है

और नादान अपने आप को बड़ा समझकर ज़िल्लत उठाता है।”

-हज़रत अली

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Farman-e-hazrat Ali

खुबसुरत इंसान से मोहब्बत नहीं होती बल्कि जिस इंसान से मोहब्बत होती है वो खुबसुरत लगने लगता है

हमेशा उस इंसान के करीब रहो जो तुम्हे खुश रखे लेकिन उस इंसान के और भी करीब रहो जो तुम्हारे बगैर खुश ना रह पाए

हज़रत अली

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Hajrat Ali ka farman

अगर किसी का ज़र्फ़ आज़माना हो तो उसको ज्यादा इज्जत दो वह आला ज़र्फ़ हुआ तो आपको और ज्यादा इज्ज़त देगा और कम ज़र्फ़ हुआ तो खुद को आला समझेगा…  हज़रत अली  !!!

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Mere aagosh-e-taswwur se nikalna hai muhaal

Mere aagosh-e-taswwur se nikalna hai muhaal
Ab khyal-e-yaar ko sanche me dhal kr rahe gaya

Aatish e rasko hasad se sang bhi khali nahi..
Deed moosa ko hui or toor jal kr rahe gaya…

Ek hamara dil ke maheve lazzate didaar e shamma..
Ek parvana jo dekha or jal kr rahe gaya

Raaz dil ka parda rkhkha raaz e husne yaar ne..
Harf e matlab muh se nikalna or nikal kr rahe gaya

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Hum mai-kade se mar ke bhi bahar na jaenge

हम मय-कदे से मर के भी बाहर न जाएँगे
मय-कश हमारी ख़ाक के साग़र बनाएँगे

वो इक कहेंगे हम से तो हम सौ सुनाएँगे
मुँह आएँगे हमारे तो अब मुँह की खाएँगे

कुछ चारासाज़ी नालों ने की हिज्र में मिरी
कुछ अश्क मेरे दिल की लगी को बुझाएँगे

वो मिस्ल-ए-अश्क उठ नहीं सकता ज़मीन से
जिस को हुज़ूर अपनी नज़र से गिराएँगे

झोंके नसीम-ए-सुब्ह के आ आ के हिज्र में
इक दिन चराग़-ए-हस्ती-ए-आशिक़ बुझाएँगे

सहरा की गर्द होगी कफ़न मुझ ग़रीब का
उठ कर बगूले मेरा जनाज़ा उठाएँगे

अब ठान ली है दिल में कि सर जाए या रहे
जैसे उठेगा बार-ए-मोहब्बत उठाएँगे

गर्दिश ने मेरी चर्ख़ का चकरा दिया दिमाग़
नालों से अब ज़मीं के तबक़ थरथराएँंगे

‘बेदम’ वो ख़ुश नहीं हैं तो अच्छा यूँही सही
ना-ख़ुश ही हो के ग़ैर मिरा क्या बनाएँगे

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Parde uThe hue bhi hain unki idhar nazar bhi hai

पर्दे उठे हुए भी हैं उन की इधर नज़र भी है
बढ़ के मुक़द्दर आज़मा सर भी है संग-ए-दर भी है

जल गई शाख़-ए-आशियाँ मिट गया तेरा गुल्सिताँ
बुलबुल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब अब कहीं तेरा घर भी है

अब न वो शाम शाम है अपनी न वो सहर सहर
होने को यूँ तो रोज़ ही शाम भी है सहर भी है

चाहे जिसे बनाइए अपना निशाना-ए-नज़र
ज़द पे तुम्हारे तीर के दिल भी है और जिगर भी है

दिन को उसी से रौशनी शब को उसी से चाँदनी
सच तो ये है कि रू-ए-यार शम्स भी है क़मर भी है

ज़ुल्फ़-ब-दोश बे-नक़ाब घर से निकल खड़े हुए
अब तो समझ गए हुज़ूर नालों में कुछ असर भी है

‘बेदम’-ए-ख़स्ता का मज़ार आप तो चल के देखिए
शम्अ बना है दाग़-ए-दिल बेकसी नौहागर भी है

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Apni hasti ka agar husn numayan ho jae

अपनी हस्ती का अगर हुस्न नुमायाँ हो जाए
आदमी कसरत-ए-अनवार से हैराँ हो जाए

तुम जो चाहो तो मिरे दर्द का दरमाँ हो जाए
वर्ना मुश्किल है कि मुश्किल मिरी आसाँ हो जाए

ओ नमक-पाश तुझे अपनी मलाहत की क़सम
बात तो जब है कि हर ज़ख़्म नमकदाँ हो जाए

देने वाले तुझे देना है तो इतना दे दे
कि मुझे शिकवा-ए-कोताही-ए-दामाँ हो जाए

उस सियह-बख़्त की रातें भी कोई रातें हैं
ख़्वाब-ए-राहत भी जिसे ख़्वाब-ए-परेशाँ हो जाए

सीना-ए-शिबली-ओ-मंसूर तो फूँका तू ने
इस तरफ़ भी करम ऐ जुम्बिश-ए-दामाँ हो जाए

आख़िरी साँस बने ज़मज़मा-ए-हू अपना
साज़-ए-मिज़राब-ए-फ़ना तार-ए-रग-ए-जाँ हो जाए

तू जो असरार-ए-हक़ीक़त कहीं ज़ाहिर कर दे
अभी ‘बेदम’ रसन-ओ-दार का सामाँ हो जाए

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Apne dīdār kī hasrat meñ tū mujh ko sarāpā dil kar de

अपने दीदार की हसरत में तू मुझ को सरापा दिल कर दे
हर क़तरा-ए-दिल को क़ैस बना हर ज़र्रे को महमिल कर दे

दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ मिरी करना है तो यूँ कामिल कर दे
अपने जल्वे मेरी हैरत नज़्ज़ारे में शामिल कर दे

याँ तूर ओ कलीम नहीं न सही मैं हाज़िर हूँ ले फूँक मुझे
पर्दे को उठा दे मुखड़े से बर्बाद सुकून-ए-दिल कर दे

गर क़ुल्ज़ुम-ए-इश्क़ है बे-साहिल ऐ ख़िज़्र तो बे-साहिल ही सही
जिस मौज में डूबे कश्ती-ए-दिल उस मौज को तू साहिल कर दे

ऐ दर्द अता करने वाले तू दर्द मुझे इतना दे दे
जो दोनों जहाँ की वुसअत को इक गोशा-ए-दामन-ए-दिल कर दे

हर सू से ग़मों ने घेरा है अब है तो सहारा तेरा है
मुश्किल आसाँ करने वाले आसान मिरी मुश्किल कर दे

‘बेदम’ उस याद के मैं सदक़े उस दर्द-ए-मोहब्बत के क़ुर्बां
जो जीना भी दुश्वार करे और मरना भी मुश्किल कर दे

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Agar marte huye lov par na tera naam aayega

अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आएगा
तो मैं मरने से दर-गुज़रा मिरे किस काम आएगा

उसे भी ठान रख साक़ी यक़ीं होगा न रिंदों को
अगर ज़ाहिद पहन कर जामा-ए-एहराम आएगा

शब-ए-फ़ुर्क़त में दर्द-ए-दिल से मैं उस वास्ते ख़ुश हूँ
ज़बाँ पर रात भर रह रह के तेरा नाम आएगा

लगी हो कुछ तो क़ासिद आख़िर इस कम-बख़्त दिल में भी
वहाँ तेरी तरह जो जाएगा नाकाम आएगा

इसी उम्मीद में बाँधे हुए हैं टकटकी मय-कश
कफ़-ए-नाज़ुक पे साक़ी रख के इक दिन जाम आएगा

यहाँ अपनी पड़ी है तुझ से ऐ ग़म-ख़्वार क्या उलझूँ
ये कौन आराम है मर जाऊँ तब आराम आएगा

ज़हे इज़्ज़त जो हो इस बज़्म में मज़कूर ऐ वाइज़
बला से गर गुनहगारों में अपना नाम आएगा

हज़ार इंकार या क़त-ए-तअल्लुक़ उस से कर नासेह
मगर हिर-फिर के होंटों पर उसी का नाम आएगा

अता की जब कि ख़ुद पीर-ए-मुग़ाँ ने पी भी ले ज़ाहिद
ये कैसा सोचना है तुझ पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा

पड़ा है सिलसिला तक़दीर का सय्याद के बस में
चमन में ऐ सबा क्यूँकर असीर-ए-दाम आएगा

कोई बदमस्त को देता है साक़ी भर के पैमाना
तिरा क्या जाएगा मुझ पर अबस इल्ज़ाम आएगा

उन्हें देखेगी तू ऐ चश्म-ए-हसरत वस्ल में या मैं
तिरे काम आएगा रोना कि मेरे काम आएगा

हमेशा क्या पियूँगा मैं इसी कोहना-सिफ़ाली मैं
मिरे आगे कभी तो साग़र-ए-ज़रफ़ाम आएगा

कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
ख़ुम आएगा सुराही आएगी तब जाम आएगा

छुरी थी कुंद तेरी या तिरे क़ातिल की ओ बिस्मिल
तड़प भी तू तिरी गर्दन पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा

यही कह कर अजल को क़र्ज़-ख़्वाहों की तरह टाला
कि ले कर आज क़ासिद यार का पैग़ाम आएगा

हमेशा क्या यूँ ही क़िस्मत में है गिनती गिना देना
कोई नाला न लब पर लाइक़-ए-अंजाम आएगा

गली में यार की ऐ ‘शाद’ सब मुश्ताक़ बैठे हैं
ख़ुदा जाने वहाँ से हुक्म किस के नाम आएगा

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Har gosha-e-nazar meñ samāe hue ho tum

har gosha-e-nazar meñ samāe hue ho tum
jaise ki mire sāmne aae hue ho tum

merī nigāh-e-shauq pe chhāe hue ho tum
jalvoñ ko ḳhud hijāb banāe hue ho tum

kyuuñ ik taraf nigāh jamāe hue ho tum
kyā raaz hai jo mujh se chhupāe hue ho tum

dil ne tumhāre husn ko baḳhshī haiñ rifateñ
dil ko magar nazar se girāe hue ho tum

ye jo niyāz-e-ishq kā ehsās hai tumheñ
shāyad kisī ke naaz uThāe hue ho tum

yā mehrbāniyoñ ke hī qābil nahīñ huuñ maiñ
yā vāqaī kisī ke sikhā.e hue ho tum

ab imtiyāz-e-parda-o-jalva nahīñ mujhe
chehre se kyuuñ naqāb uThāe hue ho tum

uf re sitam ‘shakīl’ ye hālat to ho gaī
ab bhī karam kī aas lagāe hue ho tum

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