Jab tak ye mohabbat mein

जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता
इस दिल के तईं हरगिज़ आराम नहीं होता

आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
यानी हैं जहाँ हम वाँ इस्लाम नहीं होता

कब वादा नहीं करतीं मिलने का तिरी आँखें
किस रोज़ निगाहों में पैग़ाम नहीं होता

बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
क्या शहर-ए-मोहब्बत में हज्जाम नहीं होता

मिलता है कभी बोसा ने गाली ही पाते हैं
मुद्दत हुई कुछ हम को इनआम नहीं होता

साक़ी के तलत्तुफ़ ने आलम को छकाया है
लबरेज़ हमारा ही इक जाम नहीं होता

क्यूँ तीरगी-ए-ताले कुछ तू भी नहीं करती
ये रोज़-ए-मुसीबत का क्यूँ शाम नहीं होता

फिर मेरी कमंद उस ने डाले ही तुड़ाई है
वो आहु-ए-रम-ख़ुर्दा फिर राम नहीं होता

ने इश्क़ के क़ाबिल हैं ने ज़ोहद के दर्खुर हैं
ऐ ‘मुसहफ़ी’ अब हम से कुछ काम नहीं होता

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Raushan jamal-e-yar

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी से इज़्तिराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम

दिल ख़ून हो चुका है जिगर हो चुका है ख़ाक
बाक़ी हूँ मैं मुझे भी कर ऐ तेग़-ज़न तमाम

देखो तो चश्म-ए-यार की जादू-निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम

है नाज़-ए-हुस्न से जो फ़रोज़ाँ जबीन-ए-यार
लबरेज़ आब-ए-नूर है चाह-ए-ज़क़न तमाम

नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल से बहार में
शादाबियों ने घेर लिया है चमन तमाम

उस नाज़नीं ने जब से किया है वहाँ क़याम
गुलज़ार बन गई है ज़मीन-ए-दकन तमाम

अच्छा है अहल-ए-जौर किए जाएँ सख़्तियाँ
फैलेगी यूँ ही शोरिश-ए-हुब्ब-ए-वतन तमाम

समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जमा ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम

शीरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-गदाज़-ए-‘मीर’
‘हसरत’ तिरे सुख़न पे है लुत्फ़-ए-सुख़न तमाम

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Aasan-e-haqiqi hai

आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी
मालूम हुई राह-ए-मोहब्बत की दराज़ी

कुछ लुत्फ़ ओ नज़र लाज़िम ओ मलज़ूम नहीं हैं
इक ये भी तमन्ना की न हो शोबदा बाज़ी

दिल ख़ूब समझता है तिरे हर्फ़-ए-करम को
हर-चंद वो उर्दू है न तुर्की है न ताज़ी

क़ाइम है न वो हुस्न-ए-रुख़-ए-यार का आलम
बाक़ी है न वो शौक़ की हंगामा-नवाज़ी

ऐ इश्क़ तिरी फ़तह बहर-हाल है साबित
मर कर भी शहीदान-ए-मोहब्बत हुए ग़ाज़ी

कर जल्द हमें ख़त्म कहीं ऐ ग़म-ए-जानाँ
काम आएगी किस रोज़ तिरी सीना-गुदाज़ी

मालूम है दुनिया को ये ‘हसरत’ की हक़ीक़त
ख़ल्वत में वो मय-ख़्वार है जल्वत में नमाज़ी

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Jab se tu ne mujhe diwana

जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है

उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी
नाम जिस ने भी मोहब्बत का सज़ा रक्खा है

पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो
मैं ने तुम को भी कभी अपना ख़ुदा रक्खा है

अब मिरी दीद की दुनिया भी तमाशाई है
तू ने क्या मुझ को मोहब्बत में बना रक्खा है

पी जा अय्याम की तल्ख़ी को भी हँस कर ‘नासिर’
ग़म को सहने में भी क़ुदरत ने मज़ा रक्खा है

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Apne har har lafz ka

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा

सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा
इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा

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Lazazat-e-ishq-o-mohabbat

लज़्ज़त-ए-इश्क़-ओ-मुहब्बत ठोकरें खाने में है,
सर-बुलन्दी इश्क़ की नाकाम रह जाने में है..

सुनने वाले इस तरह सुनते हैं दिल को थाम कर,
दर्द दुनिया भर का जैसे मेरे अफ़साने में है..

क्यूँ ज़बान-ए-एहले आलम पे हो मेरी दास्ताँ,
कामयाबी ज़िन्दगी की राज़ बन जाने में है..

अब वो आयें या ना आयें ये तो है मेरा नसीब,
इक तसव्वुर उन का मेरे दिल के काशाने में है..

ख़ंजर-ए-क़ातिल तिरी अब और क्या ख़ातिर करूँ,
अम्बर-ए-नाशाद का ख़ूँ तेरे नज़राने में है..!!

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duniya ke sitam yaad

दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद

मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद

छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नज़र ने
अब तक है वो इक नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा याद

जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद

क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को
मरने की अदा याद न जीने की अदा याद

मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तिरे दिल के धड़कने की सदा याद

हाँ हाँ तुझे क्या काम मिरी शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तिरे दामन की हवा याद

मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद

क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद

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mohabbat ke liye kuch dil khas hote hain

दुई का तज़्किरा तौहीद में पाया नहीं जाता
जहाँ मेरी रसाई है मिरा साया नहीं जाता

मिरे टूटे हुए पा-ए-तलब का मुझ पे एहसाँ है
तुम्हारे दर से उठ कर अब कहीं जाया नहीं जाता

मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोअ’ला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता

फ़क़ीरी में भी मुझ को माँगने से शर्म आती है
सवाली हो के मुझ से हाथ फैलाता नहीं जाता

चमन तुम से इबारत है बहारें तुम से ज़िंदा हैं
तुम्हारे सामने फूलों से मुरझाया नहीं जाता

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़्सूस होते हैं
ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता

मोहब्बत अस्ल में ‘मख़मूर’ वो राज़-ए-हक़ीक़त है
समझ में आ गया है फिर भी समझाया नहीं जाता

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gila shiba kaha rahta hain

गिला-शिकवा कहाँ रहता है दिल हम-साज़ होता है
मोहब्बत में तो हर इक जुर्म नज़र-अंदाज़ होता है

लबों पर क़ुफ़्ल आँखों में लिहाज़-ए-नाज़ होता है
मोहब्बत करने वालों का अजब अंदाज़ होता है

इशारे काम करते हैं मोहब्बत में निगाहों के
निगाहों से ही बाहम इंकिशाफ़-ए-राज़ होता है

गुज़रती है जो उस पर सब गवारा करता है ख़ुश ख़ुश
जफ़ाओं से तुम्हारी दिल कहाँ नाराज़ होता है

हर इक से हम तो बे-शक करते हैं तल्क़ीन उल्फ़त की
बड़ा तक़दीर वाला ही कोई हम-साज़ होता है

सुकून-ए-क़ल्ब हासिल है परेशाँ मैं नहीं दिलबर
जो तुम से दूर होता है वही ना-साज़ होता है

मैं हूँ शाकी ओ नाज़ाँ तो फ़क़त इस रस्म-ए-दुनिया से
वही ग़म्माज़ हो जाता है जो हमराज़ होता है

नहीं है गर ये दुनिया भी हक़ीक़त से ही वाबस्ता
तो क्यूँ दिल इस की जानिब माइल-ए-परवाज़ होता है

बड़ी तब्दीलियाँ होती हैं उल्फ़त उन से होने पर
ज़मीर-ए-ख़ुद-ग़र्ज़ का साज़-ए-बे-आवाज़ होता है

समझते हैं हमीं हैं हुक्मराँ इस सारे आलम के
नज़र में जब हमारी वो हसीं अंदाज़ होता है

नज़र आता है हर सू जलवा-ए-अनवर में ग़र्क़ आलम
दिल-ए-पुर-कैफ़ बेहिस दर-हक़ीक़त बाज़ होता है

जुदा-गाना मगर अंदाज़ होता है हर आशिक़ का
मचाता है कोई ग़ुल कोई बे-आवाज़ होता है

सफ़र मंज़िल-ब-मंज़िल तय किया जाता है उल्फ़त का
बड़ी मुद्दत में सर वो बारगाह-ए-नाज़ होता है

वही है कामराँ आशिक़ जो उस को पार कर जाए
दिलों के दरमियाँ जो इक जहान-ए-राज़ होता है

बढ़ा और उन से वाक़िफ़ हो कि आज़ार-ए-ग़म-ए-फ़ुर्कत
दुई के फ़र्श का एहसास बे-अंदाज़ होता है

तनासुख़ है मुसलसल इब्तिदा-ए-आफ़रीनश में
हयात-ए-जावेदाँ में कौन दख़्ल-अंदाज़ होता है

न हम-पेशा न हम-ख़ाना न हम-पियाला न हम-बिस्तर
वही अपना है ‘रहबर’ जो भी हम-आवाज़ होता है

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humne kis din tere khuche

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया
तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया

एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल
इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया

महफ़िल-ए-यार की रह जाएगी आधी रौनक़
नाज़ को उस ने अगर अंजुमन-आरा न किया

तान-ए-अहबाब सुने सरज़निश-ए-ख़ल्क़ सही
हम ने क्या क्या तिरी ख़ातिर से गवारा न किया

जब दिया तुम ने रक़ीबों को दिया जाम-ए-शराब
भूल कर भी मिरी जानिब को इशारा न किया

रू-ब-रू चश्म-ए-तसव्वुर के वो हर वक़्त रहे
न सही आँख ने गर उन का नज़ारा न किया

गर यही है सितम-ए-यार तो हम ने ‘हसरत’
न किया कुछ भी जो दुनिया से किनारा न किया

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