Khayal-e-yaar bana baitha hu

बैठा हूँ वक़्फ़-ए-मातम-ए-हस्ती मिटा हुआ
ज़हर-ए-वफ़ा है घर की फ़ज़ा में घुला हुआ

ख़ुद उन के पास जाऊँ न उन को बुलाऊँ पास
पाया है वो मिज़ाज कि जीना बला हुआ

अपनी ज़बाँ को आज वो तासीर है नसीब
जिस को ख़ुदा-ए-हुस्न कहा वो ख़ुदा हुआ

उस पर ग़लत है इश्क़ में इल्ज़ाम-ए-दुश्मनी
क़ातिल है मेरे हुज्ला-ए-जाँ में छुपा हुआ

जाँ है तो फ़िक्र-ए-इशरत-ए-बज़्म-ए-जहाँ भी है
कब दिल से दर्द-ए-आलम-ए-इम्काँ जुदा हुआ

हैं जिस्म-ओ-जाँ बहम ये मगर किस को है ख़बर
किस किस जगह से दामन-ए-दिल है सिला हुआ

है राहवार-ए-शौक़ पे आसेब-ए-बे-दिली
रक्खा है कब से सामने साग़र भरा हुआ

हासिल है जिस को ‘अर्श’ फ़ज़ाओं पे इख़्तियार
वो दिल के साथ खेल रहा है तो क्या हुआ