Nazar me dhal ke

नज़र में ढल के उभरते हैं दिल के अफ़्साने
ये और बात है दुनिया नज़र न पहचाने

वो बज़्म देखी है मेरी निगाह ने कि जहाँ
बग़ैर शम्अ’ भी जलते रहे हैं परवाने

ये क्या बहार का जोबन ये क्या नशात का रंग
फ़सुर्दा मय-कदे वाले उदास मय-ख़ाने

मिरे नदीम तिरी चश्म-ए-इल्तिफ़ात की ख़ैर
बिगड़ बिगड़ के सँवरते गए हैं अफ़्साने

ये किस की चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ का करिश्मा है
कि टूट कर भी सलामत हैं दिल के बुत-ख़ाने

निगाह-ए-नाज़ में दिल-सोज़ी-ए-नियाज़ कहाँ
ये आश्ना-ए-नज़र हैं दिलों के बेगाने

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Mera ji hain jab tak teri zustazu hain

मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है
ज़बाँ जब तलक है यही गुफ़्तुगू है

ख़ुदा जाने क्या होगा अंजाम इस का
मैं बे-सब्र इतना हूँ वो तुंद-ख़ू है

तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना
तिरी आरज़ू है अगर आरज़ू है

किया सैर सब हम ने गुलज़ार-ए-दुनिया
गुल-ए-दोस्ती में अजब रंग-ओ-बू है

ग़नीमत है ये दीद व दीद-ए-याराँ
जहाँ आँख मुँद गई न मैं हूँ न तू है

नज़र मेरे दिल की पड़ी ‘दर्द’ किस पर
जिधर देखता हूँ वही रू-ब-रू है

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Agar kuchh hosh hum rakhte

अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लब-ए-साक़ी कूँ पैमाने हुए होते

अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते

न रखता मैं यहाँ गर उल्फ़त-ए-लैला निगाहों कूँ
तो मजनूँ की तरह आलम में अफ़्साने हुए होते

अगर हम आश्ना होते तिरी बेगाना-ख़ूई सीं
बरा-ए-मस्लहत ज़ाहिर में बेगाने हुए होते

ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम्अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते

न करता ज़ब्त अगर मैं गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी कूँ
गुज़रता जिस तरफ़ ये पूर वीराने हुए होते

नज़र चश्म-ए-ख़रीदारी सीं करता दिलबर-ए-नादाँ
अगर क़तरे मिरे आँसू के दुरदाने हुए होते

मोहब्बत के नशे में ख़ास इंसाँ वास्ते वर्ना
फ़रिश्ते ये शराबें पी कि मस्ताने हुए होते

एवज़ अपने गरेबाँ के किसी की ज़ुल्फ़ हात आती
हमारे हात के पंजे मगर शाने हुए होते

तिरी शमशीर-ए-अबरू सीं हुए सन्मुख व इल्ला न
अजल की तेग़ सीं ज्यूँ आरा दंदाने हुए होते

मज़ा जो आशिक़ी में है सो माशूक़ी में हरगिज़ नीं
‘सिराज’ अब हो चुके अफ़सोस परवाने हुए होते

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Mujhse kaha jibril-e-junun ne

मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है

वो जो हुए फ़िरदौस-बदर तक़्सीर थी वो आदम की मगर
मेरा अज़ाब-ए-दर-बदरी मेरी ना-कर्दा-गुनाही है

संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़-ए-समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो उन हाथों की कोताही है

फिर कोई मंज़र फिर वही गर्दिश क्या कीजे ऐ कू-ए-निगार
मेरे लिए ज़ंजीर-ए-गुलू मेरी आवारा-निगाही है

बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़्ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है

दीद के क़ाबिल है तो सही ‘मजरूह’ तिरी मस्ताना-रवी
गर्द-ए-हवा है रख़्त-ए-सफ़र रस्ते का शजर हम-राही है

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