Agar kuchh hosh hum rakhte

अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लब-ए-साक़ी कूँ पैमाने हुए होते

अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते

न रखता मैं यहाँ गर उल्फ़त-ए-लैला निगाहों कूँ
तो मजनूँ की तरह आलम में अफ़्साने हुए होते

अगर हम आश्ना होते तिरी बेगाना-ख़ूई सीं
बरा-ए-मस्लहत ज़ाहिर में बेगाने हुए होते

ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम्अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते

न करता ज़ब्त अगर मैं गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी कूँ
गुज़रता जिस तरफ़ ये पूर वीराने हुए होते

नज़र चश्म-ए-ख़रीदारी सीं करता दिलबर-ए-नादाँ
अगर क़तरे मिरे आँसू के दुरदाने हुए होते

मोहब्बत के नशे में ख़ास इंसाँ वास्ते वर्ना
फ़रिश्ते ये शराबें पी कि मस्ताने हुए होते

एवज़ अपने गरेबाँ के किसी की ज़ुल्फ़ हात आती
हमारे हात के पंजे मगर शाने हुए होते

तिरी शमशीर-ए-अबरू सीं हुए सन्मुख व इल्ला न
अजल की तेग़ सीं ज्यूँ आरा दंदाने हुए होते

मज़ा जो आशिक़ी में है सो माशूक़ी में हरगिज़ नीं
‘सिराज’ अब हो चुके अफ़सोस परवाने हुए होते