Mujhse kaha jibril-e-junun ne

मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है

वो जो हुए फ़िरदौस-बदर तक़्सीर थी वो आदम की मगर
मेरा अज़ाब-ए-दर-बदरी मेरी ना-कर्दा-गुनाही है

संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़-ए-समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो उन हाथों की कोताही है

फिर कोई मंज़र फिर वही गर्दिश क्या कीजे ऐ कू-ए-निगार
मेरे लिए ज़ंजीर-ए-गुलू मेरी आवारा-निगाही है

बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़्ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है

दीद के क़ाबिल है तो सही ‘मजरूह’ तिरी मस्ताना-रवी
गर्द-ए-हवा है रख़्त-ए-सफ़र रस्ते का शजर हम-राही है