hamara to koi sahara nhi

हमारा तो कोई सहारा नहीं है
ख़ुदा है तो लेकिन हमारा नहीं है

मोहब्बत की तल्ख़ी गवारा है लेकिन
हक़ीक़त की तल्ख़ी गवारा नहीं है

मिरी ज़िंदगी वो ख़ला है कि जिस में
कहीं दूर तक कोई तारा नहीं है

ख़ुदा क्या ख़ुदी को भी आवाज़ दी है
मुसीबत में किस को पुकारा नहीं है

सराब इक हक़ीक़त है आब इक तसव्वुर
यही ज़िंदगी है तो चारा नहीं है

हम अपनी ही आँखों का पर्दा उलट दें
हक़ीक़त को ये भी गवारा नहीं है

वो क्या उन के गेसू सँवारेगा जिस ने
गरेबाँ भी अपना सँवारा नहीं है

ख़ुदा उस से निपटे तो निपटे कि ये दिल
हमारा नहीं है तुम्हारा नहीं है

नज़र उन की गोशा-नशीं है हया से
इशारा नहीं ये इशारा नहीं है

हमारा है क्या जब हमारा इरादा
हमारा है लेकिन हमारा नहीं है

गरेबाँ बहुत से हुए पारा पारा
नक़ाब एक भी पारा पारा नहीं है

किसी के लिए दिल को सुलगा के देखो
जहन्नम कोई इस्तिआरा नहीं है

ब-जुज़ ‘मज़हरी’ के सभी बज़्म में हैं
वही तेरे वादों का मारा नहीं है

Read More...

mai sadke tujhpe jao

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रूठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तम्हीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मिरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
कि इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद ‘जमील’
अजब नहीं कि बदल जाए रुत ज़माने की

Read More...

suna hai raft h usko kharab halo se

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो’जिज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

Read More...

dast me piyas bhujhate huye

दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस
जो तअ’ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं

किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप
हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं

उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है
जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं

हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले ‘ताबिश’
जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं

Read More...

unko ye shikayat hai

उन को ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते

मजबूर बहुत करता है ये दिल तो ज़बाँ को
कुछ ऐसी ही हालत है कि हम कुछ नहीं कहते

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते
दुनिया की इनायत है कि हम कुछ नहीं कहते

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया
अब इस पे क़यामत है कि हम कुछ नहीं कहते

Read More...

jab nazar basar ho

जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए
अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाए

शराब-ए-शौक़ की क़ीमत है नक़्द-ए-जान-ए-अज़ीज़
अगर ये बाइस-ए-कैफ़-ए-दवाम हो जाए

रहीन-ए-यास रहें अहल-ए-आरज़ू कब तक
कभी तो आप का दरबार आम हो जाए

जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए

वो दूर ही से हमें देख लें यही है बहुत
मगर क़ुबूल हमारा सलाम हो जाए

अगर वो हुस्न-ए-दिल-आरा कभी हो जल्वा फ़रोश
फ़रोग़-ए-नूर में गुम ज़र्फ़-ए-बाम हो जाए

सुना है बरसर-ए-बख़ि़्शश है आज पीर मुग़ाँ
हमें भी काश अता कोई जाम हो जाए

तिरे करम पे है मौक़ूफ़ कामरानी-ए-शौक़
ये ना-तमाम इलाही तमाम हो जाए

सितम के बाद करम है जफ़ा के बाद अता
हमें है बस जो यही इल्तिज़ाम हो जाए

अता हो सोज़ वो या रब जुनून-ए-‘हसरत’ को
कि जिस से पुख़्ता ये सौदा-ए-ख़ाम हो जाए

Read More...

luft ki unse iltiza na kar

लुत्फ़ की उन से इल्तिजा न करें
हम ने ऐसा कभी किया न करें

मिल रहेगा जो उन से मिलना है
लब को शर्मिंदा-ए-दुआ न करें

सब्र मुश्किल है आरज़ू बेकार
क्या करें आशिक़ी में क्या न करें

मस्लक-ए-इश्क़ में है फ़िक्र हराम
दिल को तदबीर-आश्ना न करें

भूल ही जाएँ हम को ये तो न हो
लोग मेरे लिए दुआ न करें

मर्ज़ी-ए-यार के ख़िलाफ़ न हो
कौन कहता है वो जफ़ा न करें

शौक़ उन का सो मिट चुका ‘हसरत’
क्या करें हम अगर वफ़ा न करें

Read More...