mai sadke tujhpe jao

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रूठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तम्हीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मिरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
कि इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद ‘जमील’
अजब नहीं कि बदल जाए रुत ज़माने की