humko aina banaya yar ne

हम को याँ दर दर फिराया यार ने
ला-मकाँ में घर बनाया यार ने

आप अपने देखने के वास्ते
हम को आईना बनाया यार ने

अपने इक अदना तमाशे के लिए
हम को सूली पर चढ़ाया यार ने

आप छुप के हम को कर के रू-ब-रू
ख़ूब ही रुस्वा कराया यार ने

आप तो बुत बन के की जल्वागरी
और हमें काफ़िर बनाया यार ने

Read More...

pochh usse maqbool hai fitrat ki gabahi

पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
तू साहिब-ए-मंज़िल है कि भटका हुआ राही

काफ़िर है मुसलमाँ तो न शाही न फ़क़ीरी
मोमिन है तो करता है फ़क़ीरी में भी शाही

काफ़िर है तो शमशीर पे करता है भरोसा
मोमिन है तो बे-तेग़ भी लड़ता है सिपाही

काफ़िर है तो है ताबा-ए-तक़दीर मुसलमाँ
मोमिन है तो वो आप है तक़दीर-ए-इलाही

मैं ने तो किया पर्दा-ए-असरार को भी चाक
देरीना है तेरा मरज़-ए-कोर-निगाही

Read More...

musalma ke laho me hai

मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का

शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से
सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का

बहुत मुद्दत के नख़चीरों का अंदाज़-ए-निगह बदला
कि मैं ने फ़ाश कर डाला तरीक़ा शाहबाज़ी का

क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता
फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का

हदीस-ए-बादा-ओ-मीना-ओ-जाम आती नहीं मुझ को
न कर ख़ारा-शग़ाफ़ों से तक़ाज़ा शीशा-साज़ी का

कहाँ से तू ने ऐ ‘इक़बाल’ सीखी है ये दरवेशी
कि चर्चा पादशाहों में है तेरी बे-नियाज़ी का

Read More...

jab bhi do aasho nikle

जब भी दो आँसू निकल कर रह गए
दर्द के उनवाँ बदल कर रह गए

कितनी फ़रियादें लबों पर रुक गईं
कितने अश्क आहों में ढल कर रह गए

रुख़ बदल जाता मिरी तक़दीर का
आप ही तेवर बदल कर रह गए

खुल के रोने की तमन्ना थी हमें
एक दो आँसू निकल कर रह गए

ज़िंदगी भर साथ देना था जिन्हें
दो क़दम हमराह चल कर रह गए

तेरे अंदाज़-ए-‘तबस्सुम’ का फ़ुसूँ
हादसे पहलू बदल कर रह गए

Read More...

ghar sulagta sa hai

घर सुलगता सा है और जलता हुआ सा शहर है
ज़िंदगानी के लिए अब दो-जहाँ का क़हर है

जाओ लेकिन सुर्ख़ शो’लों के सिवा पाओगे क्या
सनसनाते दश्त में काली हवा का क़हर है

दिल ये क्या जाने कि क्या शय है हरारत ख़ून की
जिस्म क्या समझे कि कैसी ज़िंदगी की लहर है

ऐ मोहब्बत मैं तिरी बेताबियों को क्या करूँ
बढ़ के चश्म-ए-यार से बरहम मिज़ाज-ए-दहर है

भर रहा हूँ किस शराब-ए-दर्द से जाम-ए-ग़ज़ल
रूह में कुचले हुए जज़्बात की इक नहर है

ज़िंदगी से भाग कर ‘प्रकाश’ मैं जाऊँ कहाँ
घर के बाहर क़हर है और घर के अंदर ज़हर है

Read More...