jo dil se milta hai

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है

कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में
कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है

पस-ए-पर्दा भी लैला हाथ रख लेती है आँखों पर
ग़ुबार-ए-ना-तवान-ए-क़ैस जब महमिल से मिलता है

भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमा-ए-ख़ूबी
मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है

मुझे आता है क्या क्या रश्क वक़्त-ए-ज़ब्ह उस से भी
गला जिस दम लिपट कर ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है

ब-ज़ाहिर बा-अदब यूँ हज़रत-ए-नासेह से मिलता हूँ
मुरीद-ए-ख़ास जैसे मुर्शिद-ए-कामिल से मिलता है

मिसाल-ए-गंज-ए-क़ारूँ अहल-ए-हाजत से नहीं छुपता
जो होता है सख़ी ख़ुद ढूँड कर साइल से मिलता है

जवाब इस बात का उस शोख़ को क्या दे सके कोई
जो दिल ले कर कहे कम-बख़्त तू किस दिल से मिलता है

छुपाए से कोई छुपती है अपने दिल की बेताबी
कि हर तार-ए-नफ़स अपना रग-ए-बिस्मिल से मिलता है

अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से
मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है

ग़ज़ब है ‘दाग़’ के दिल से तुम्हारा दिल नहीं मिलता
तुम्हारा चाँद सा चेहरा मह-ए-कामिल से मिलता है

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meri jaan rooth ke jana

ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा

आरज़ू ही न रही सुब्ह-ए-वतन की मुझ को
शाम-ए-ग़ुर्बत है अजब वक़्त सुहाना तेरा

ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा

ऐ दिल-ए-शेफ़्ता में आग लगाने वाले
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा

तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासेह-ए-नादाँ मेरा
क्या ख़ता की जो कहा मैं ने न माना तेरा

रंज क्या वस्ल-ए-अदू का जो तअ’ल्लुक़ ही नहीं
मुझ को वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा

काबा ओ दैर में या चश्म-ओ-दिल-ए-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा

तर्क-ए-आदत से मुझे नींद नहीं आने की
कहीं नीचा न हो ऐ गोर सिरहाना तेरा

मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंज-ए-फ़िराक़
वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा

बज़्म-ए-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा

अपनी आँखों में अभी कौंद गई बिजली सी
हम न समझे कि ये आना है कि जाना तेरा

यूँ तो क्या आएगा तू फ़र्त-ए-नज़ाकत से यहाँ
सख़्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा

‘दाग़’ को यूँ वो मिटाते हैं ये फ़रमाते हैं
तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा

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hamari mohabbat kya hai

अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम
किसी के दिल की हक़ीक़त किसी को क्या मालूम

यक़ीं तो ये है वो ख़त का जवाब लिक्खेंगे
मगर नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी को क्या मालूम

ब-ज़ाहिर उन को हया-दार लोग समझे हैं
हया में जो है शरारत किसी को क्या मालूम

क़दम क़दम पे तुम्हारे हमारे दिल की तरह
बसी हुई है क़यामत किसी को क्या मालूम

ये रंज ओ ऐश हुए हिज्र ओ वस्ल में हम को
कहाँ है दोज़ख़ ओ जन्नत किसी को क्या मालूम

जो सख़्त बात सुने दिल तो टूट जाता है
इस आईने की नज़ाकत किसी को क्या मालूम

किया करें वो सुनाने को प्यार की बातें
उन्हें है मुझ से अदावत किसी को क्या मालूम

ख़ुदा करे न फँसे दाम-ए-इश्क़ में कोई
उठाई है जो मुसीबत किसी को क्या मालूम

अभी तो फ़ित्ने ही बरपा किए हैं आलम में
उठाएँगे वो क़यामत किसी को क्या मालूम

जनाब-ए-‘दाग़’ के मशरब को हम से तो पूछो
छुपे हुए हैं ये हज़रत किसी को क्या मालूम

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hum apna hi ashq hain

हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं

इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मस्जूद जानते हैं

सूरत-पज़ीर हम बिन हरगिज़ नहीं वे माने
अहल-ए-नज़र हमीं को मा’बूद जानते हैं

इश्क़ उन की अक़्ल को है जो मा-सिवा हमारे
नाचीज़ जानते हैं ना-बूद जानते हैं

अपनी ही सैर करने हम जल्वा-गर हुए थे
इस रम्ज़ को व-लेकिन मादूद जानते हैं

यारब कसे है नाक़ा हर ग़ुंचा इस चमन का
राह-ए-वफ़ा को हम तो मसदूद जानते हैं

ये ज़ुल्म-ए-बे-निहायत दुश्वार-तर कि ख़ूबाँ
बद-वज़इयों को अपनी महमूद जानते हैं

क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं

मर कर भी हाथ आवे तो ‘मीर’ मुफ़्त है वो
जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं

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kya hai ishq

क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़
हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़

दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा
मौत का नाम प्यार का है इश्क़

और तदबीर को नहीं कुछ दख़्ल
इश्क़ के दर्द की दवा है इश्क़

क्या डुबाया मुहीत में ग़म के
हम ने जाना था आश्ना है इश्क़

इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली
दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़

कोहकन क्या पहाड़ काटेगा
पर्दे में ज़ोर-आज़मा है इश्क़

इश्क़ है इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा बहम किया है इश्क़

कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ मुद्दआ है इश्क़

‘मीर’ मरना पड़े है ख़ूबाँ पर
इश्क़ मत कर कि बद बला है इश्क़

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kiya hai pyar jise

किया है प्यार जिसे हम ने ज़िंदगी की तरह
वो आश्ना भी मिला हम से अजनबी की तरह

किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह

बढ़ा के प्यास मिरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल-लगी की तरह

सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना
क़ुबूल हम ने किए जिस के ग़म ख़ुशी की तरह

कभी न सोचा था हम ने ‘क़तील’ उस के लिए
करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह

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tumhari anjum se uth ke

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वो अफ़्साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मय-ख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते

‘क़तील’ अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते

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need masto ko kaha

नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया
ख़िश्त-ए-ख़ुम-ख़ाना है याँ अपने तो सर का तकिया

लख़्त-ए-दिल आ के मुसाफ़िर से ठहरते हैं यहाँ
चश्म है हम से गदाओं की गुज़र का तकिया

जिस तरफ़ आँख उठा देखिए हो जाए असर
हम तो रखते हैं फ़क़त अपनी नज़र का तकिया

चैन हरगिज़ नहीं मख़मल के उसे तकिए पर
उस परी के लिए हो हूर के पर का तकिया

हाथ अपने के सिवा और तो क्या हो हैहात
वालिह ओ दर-ब-दर ओ ख़ाक-बसर का तकिया

सर तो चाहे है मिरा होवे मयस्सर तेरे
हाथ का बाज़ू का ज़ानू का कमर का तकिया

ये तो हासिल है कहाँ भेज दे लेकिन मुझ को
जिस में बालों की हो बू तेरे हो सर का तकिया

तीखे-पन के तिरे क़ुर्बान अकड़ के सदक़े
क्या ही बैठा है लगा कर के सिपर का तकिया

गरचे हम सख़्त गुनहगार हैं लेकिन वल्लाह
दिल में जो डर है हमें है उसी डर का तकिया

गिर्या ओ आह-ओ-फ़ुग़ाँ नाला ओ या रब फ़रियाद
सब को है हर शब-ओ-रोज़ अपने असर का तकिया

रिंद ओ आज़ाद हुए छोड़ इलाक़ा सब का
ढूँढते कब हैं पिदर और पिसर का तकिया

गर भरोसा है हमें अब तो भरोसा तेरा
और तकिया है अगर तेरे ही दर का तकिया

शौक़ से सोइए सर रख के मिरे ज़ानू पर
उस को मत समझिए कुछ ख़ौफ़-ओ-ख़तर का तकिया

जब तलक आप न जागेंगे रहेगा यूँ ही
सरकेगा तब ही कि जब कहियेगा सरका तकिया

लुत्फ़-ए-इज़दी ही से उम्मीद है इंशा-अल्लाह
कुछ नहीं रखते हैं हम फ़ज़्ल ओ हुनर का तकिया

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door rahkar na kro yaad

दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ

एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की
आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ

सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो’ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ

इस क़दर हम से झिजकने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ

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