mere gham ko jo apna batate

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे

बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छतें आज़माते रहे

आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए
घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे

शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र
आँसुओं से इन आँखों में आते रहे

नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे

दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे

शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ ‘वसीम’
लोग पीते रहे हम पिलाते रहे

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apne saye ko itna samjhaya

अपने साए को इतना समझाने दे
मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे

एक नज़र में कई ज़माने देखे तो
बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे

बाबा दुनिया जीत के मैं दिखला दूँगा
अपनी नज़र से दूर तो मुझ को जाने दे

मैं भी तो इस बाग़ का एक परिंदा हूँ
मेरी ही आवाज़ में मुझ को गाने दे

फिर तो ये ऊँचा ही होता जाएगा
बचपन के हाथों में चाँद आ जाने दे

फ़स्लें पक जाएँ तो खेत से बिछ्ड़ेंगी
रोती आँख को प्यार कहाँ समझाने दे

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kaha sabab kaha azab

कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है
मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है

बिछड़ के मुझ से तुम अपनी कशिश न खो देना
उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है

उसे पता ही नहीं है कि प्यार की बाज़ी
जो हार जाए वही कामयाब होता है

जब उस के पास गँवाने को कुछ नहीं होता
तो कोई आज का इज़्ज़त-मआब होता है

जिसे मैं लिखता हूँ ऐसे कि ख़ुद ही पढ़ पाँव
किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा भी बाब होता है

बहुत भरोसा न कर लेना अपनी आँखों पर
दिखाई देता है जो कुछ वो ख़्वाब होता है

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fool the badam bhi tha

फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी

जो हवा में घर बनाए काश कोई देखता
दश्त में रहते थे पर ता’मीर की आदत भी थी

कह गया मैं सामने उस के जो दिल का मुद्दआ’
कुछ तो मौसम भी अजब था कुछ मिरी हिम्मत भी थी

अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फ़ासले पर घर की हर राहत भी थी

क्या क़यामत है ‘मुनीर’ अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आश्ना जिन से हमें उल्फ़त भी थी

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sare manjar ek jaise hai

सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
सारे दिन हैं एक से और सारी रातें एक सी

बे-नतीजा बे-समर जंग-ओ-जदल सूद ओ ज़ियाँ
सारी जीतें एक जैसी सारी मातें एक सी

सब मुलाक़ातों का मक़्सद कारोबार-ए-ज़र-गरी
सब की दहशत एक जैसी सब की घातें एक सी

अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं
सब क़बीले एक हैं अब सारी ज़ातें एक सी

एक ही रुख़ की असीरी ख़्वाब है शहरों का अब
उन के मातम एक से उन की बरातें एक सी

हों अगर ज़ेर-ए-ज़मीं तो फ़ाएदा होने का क्या
संग ओ गौहर एक हैं फिर सारी धातें एक सी

ऐ ‘मुनीर’ आज़ाद हो इस सेहर-ए-यक-रंगी से तू
हो गए सब ज़हर यकसाँ सब नबातें एक सी

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kidher jaye aadmi

ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
इक गुलशन-ए-हवा है जिधर जाए आदमी

देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी

देखे हैं वो नगर कि अभी तक हूँ ख़ौफ़ में
वो सूरतें मिली हैं कि डर जाए आदमी

ये बहर-ए-हस्त-ओ-बूद है बे-गौहर-ए-मुराद
गहराइयों में इस की अगर जाए आदमी

पर्दे में रंग-ओ-बू के सफ़र-दर-सफ़र ‘मुनीर’
इन मंज़िलों से कैसे गुज़र जाए आदमी

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thi jiski justjo mujhko

थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
इन बस्तियों में हम को रिफ़ाक़त नहीं मिली

अब तक हैं इस गुमाँ में कि हम भी हैं दहर में
इस वहम से नजात की सूरत नहीं मिली

रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली

कहना था जिस को उस से किसी वक़्त में मुझे
इस बात के कलाम की मोहलत नहीं मिली

कुछ दिन के बा’द उस से जुदा हो गए ‘मुनीर’
उस बेवफ़ा से अपनी तबीअ’त नहीं मिली

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bechain bhaut firna ghabraye

बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना

छलकाए हुए चलना ख़ुशबू लब-ए-लालीं की
इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना

उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
पर्दे में चले जाना शरमाए हुए रहना

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चाँद सा आँखों में चमकाए हुए रहना

आदत ही बना ली है तुम ने तो ‘मुनीर’ अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना

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khayal jiska tha mujhe

ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
सवाल का जवाब भी सवाल में मिला मुझे

गया तो इस तरह गया कि मुद्दतों नहीं मिला
मिला जो फिर तो यूँ कि वो मलाल में मिला मुझे

तमाम इल्म ज़ीस्त का गुज़िश्तगाँ से ही हुआ
अमल गुज़िश्ता दौर का मिसाल में मिला मुझे

हर एक सख़्त वक़्त के बाद और वक़्त है
निशाँ कमाल-ए-फ़िक्र का ज़वाल में मिला मुझे

निहाल सब्ज़ रंग में जमाल जिस का है ‘मुनीर’
किसी क़दीम ख़्वाब के मुहाल में मिला मुझे

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aaina ab juda nhi karta

आइना अब जुदा नहीं करता
क़ैद में हूँ रिहा नहीं करता

मुस्तक़िल सब्र में है कोह-ए-गिराँ
नक़्श-ए-इबरत सदा नहीं करता

रंग-ए-महफ़िल बदलता रहता है
रंग कोई वफ़ा नहीं करता

ऐश-ए-दुनिया की जुस्तुजू मत कर
ये दफ़ीना मिला नहीं करता

जी में आए जो कर गुज़रता है
तू किसी का कहा नहीं करता

एक वारिस हमेशा होता है
तख़्त ख़ाली रहा नहीं करता

अहद-ए-इंसाफ़ आ रहा है ‘मुनीर’
ज़ुल्म दाएम हुआ नहीं करता

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