Zamana Aaya hai be Hijabi ka

ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा

गुज़र गया अब वो दौर साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले
बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा

कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में आ बसेंगे
बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ार-ज़ार होगा

सुना दिया गोश मुंतज़िर को हिजाज़ की ख़ामुशी ने आख़िर
जो अहद सहराइयों से बाँधा गया था पर उस्तुवार होगा

निकल के सहरा से जिस ने रूमा की सल्तनत को उलट दिया था
सुना है ये क़ुदसियों से मैं ने वो शेर फिर होशियार होगा

किया मिरा तज़्किरा जो साक़ी ने बादा-ख़्वारों की अंजुमन में
तो पीर मय-ख़ाना सुन के कहने लगा कि मुँह फट है ख़ार होगा

दयार मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है
खरा है जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र कम-अयार होगा

तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा

सफ़ीना-ए-बर्ग-ए-गुल बना लेगा क़ाफ़िला मोर-ए-ना-तावाँ का
हज़ार मौजों की हो कशाकश मगर ये दरिया से पार होगा

चमन में लाला दिखाता फिरता है दाग़ अपना कली कली को
ये जानता है कि इस दिखावे से दिल जलों में शुमार होगा

जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए’तिबार होगा

कहा जो क़मरी से मैं ने इक दिन यहाँ के आज़ाद पागल हैं
तो ग़ुंचे कहने लगे हमारे चमन का ये राज़दार होगा

ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे
मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा

ये रस्म बरहम फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश नज़र भी
रहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा

मैं ज़ुल्मत-ए-शब में ले के निकलूँगा अपने दरमांदा कारवाँ को
शह निशाँ होगी आह मेरी नफ़स मिरा शोला बार होगा

नहीं है ग़ैर अज़ नुमूद कुछ भी जो मुद्दआ तेरी ज़िंदगी का
तू इक नफ़स में जहाँ से मिटना तुझे मिसाल शरार होगा

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश इंतिज़ार होगा

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Bo Ajab Ghadi Thi

वो अजब घड़ी थी मैं जिस घड़ी लिया दर्स नुस्ख़ा-ए-इश्क़ का
कि किताब अक़्ल की ताक़ पर जूँ धरी थी त्यूँ ही धरी रही

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Ab to Ghabra ke ye kahte Hain

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली ऐ चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ
पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम
पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जाएँगे

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ
पर मुझे डर है कि वो देख के डर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

नहीं पाएगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़
हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया
चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

हम भी देखेंगे कोई अहल-ए-नज़र है कि नहीं
याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे

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Aah ko chahiye ek Umr Asar Hote Tak

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक

हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक

परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता’लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक

यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक

ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक

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Kalam Parveen Shakir

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी

बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी

सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी

दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें
शीशा-गिरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी

उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी

मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी

उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी

गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी

उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी

शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी

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Ham par tumhari chaah

Ham par tumhari chaah ka ilzam hi to hai
dushnām to nahīñ hai ye ikrām hī to hai
karte haiñ jis pe ta.an koī jurm to nahīñ
shauq-e-fuzūl o ulfat-e-nākām hī to hai

dil mudda.ī ke harf-e-malāmat se shaad hai
ai jān-e-jāñ ye harf tirā naam hī to hai
dil nā-umīd to nahīñ nākām hī to hai
lambī hai ġham kī shaam magar shaam hī to hai

dast-e-falak meñ gardish-e-taqdīr to nahīñ
dast-e-falak meñ gardish-e-ayyām hī to hai
āḳhir to ek roz karegī nazar vafā
vo yār-e-ḳhush-ḳhisāl sar-e-bām hī to hai

bhīgī hai raat ‘faiz’ ġhazal ibtidā karo
vaqt-e-sarod dard kā hañgām hī to hai

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Tum aaye ho na shab e intizār guzrī

Tum aaye ho na shab e intizār guzrī hai

talāsh meñ hai sahar baar baar guzrī hai

junūñ meñ jitnī bhī guzrī ba-kār guzrī hai

agarche dil pe ḳharābī hazār guzrī hai

huī hai hazrat-e-nāseh se guftugū jis shab

vo shab zarūr sar-e-kū-e-yār guzrī hai

vo baat saare fasāne meñ jis kā zikr na thā

vo baat un ko bahut nā-gavār guzrī hai

na gul khile haiñ na un se mile na mai pī hai

ajiib rañg meñ ab ke bahār guzrī hai

chaman pe ġhārat-e-gul-chīñ se jaane kyā guzrī

qafas se aaj sabā be-qarār guzrī hai

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