maar kar teer bo dilbar gya

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे
कह दो हम से न कोई दे के निशानी माँगे

ऐ सनम देख के हर दम की तिरी कम-सुख़नी
मौत घबरा के न क्यूँ ये ख़फ़क़ानी माँगे

ख़ाक से तिश्ना-ए-दीदार के सब्ज़ा जो उठे
तो ज़बाँ अपनी निकाले हुए पानी माँगे

मार-ए-पेचाँ तो बला हैगा मगर तू ऐ ज़ुल्फ़
है वो काफ़िर कि न काटा तिरा पानी माँगे

दहन-ए-यार हो और माँगे किसी से दिल को
वो जो माँगे तो ब-अंदाज़-ए-निहानी माँगे

दिल मिरा बोसा-ब-पैग़ाम नहीं है हमदम
यार लेता है तो ले अपनी ज़बानी माँगे

जल्वा उस आलम-ए-मअ’नी का जो देखे ऐ ‘ज़ौक़’
लुत्फ़-ए-अल्फ़ाज़ न बे-हुस्न-ए-मआनी माँगे

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nigah ka baar to ho gya

निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी

तिरा ज़बाँ से मिलाना ज़बाँ जो याद आया
न हाए हाए में तालू से फिर ज़बान लगी

किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगा कर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी

तो वो है माह-जबीं मिस्ल-ए-दीदा-ए-अंजुम
रहे है तेरी तरफ़ चश्म-ए-यक-जहान लगी

ख़ुदा करे कहे तुझ से ये कुछ ख़ुदा-लगती
कि ज़ुल्फ़ ऐ बुत-ए-बद-केश तेरे कान लगी

उड़ाई हिर्स ने आ कर जहाँ में सब की ख़ाक
नहीं है किस को हवा ज़ेर-ए-आसमान लगी

किसी की काविश-ए-मिज़्गाँ से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी

तबाह बहर-ए-जहाँ में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी

तुम्हारे हाथ से सीने में दिल से ता-बा-जिगर
सिनान ओ ख़ंजर ओ पैकाँ की है दुकान लगी

ख़दंग-ए-यार मिरे दिल से किस तरह निकले
कि उस के साथ है ऐ ‘ज़ौक़’ मेरी जान लगी

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la sakiya pyala tauba ka kul hua

महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ
ला साक़िया प्याला कि तौबा का क़ुल हुआ

जिन की नज़र चढ़ा तिरा रुख़्सार-ए-आतिशीं
उन का चराग़-ए-गोर न ता-हश्र गुल हुआ

बंदा-नवाज़ियाँ तो ये देखो कि आदमी
जुज़्व-ए-ज़ईफ़ महरम-ए-असरार-ए-कुल हुआ

दरिया-ए-ग़म से मेरे गुज़रने के वास्ते
तेग़-ए-ख़मीदा यार की लोहे का पुल हुआ

परवाना भी था गर्म-ए-तपिश पर खुला न राज़
बुलबुल की तंग-हौसलगी थी कि ग़ुल हुआ

आई तही-दरों की न हरगिज़ समझ में बात
आवाज़ा गो बुलंद मिसाल-ए-दुहुल हुआ

उस बिन रहा चमन में भी मैं ‘ज़ौक़’ दिल-ख़राश
नाख़ुन से तेज़-तर मुझे हर बर्ग-ए-गुल हुआ

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mere seene se tera teer nikla

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
दहान-ए-ज़ख़्म से ख़ूँ हो के हर्फ़-ए-आरज़ू निकला

मिरा घर तेरी मंज़िल-गाह हो ऐसे कहाँ तालए
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला

फिरा गर आसमाँ तो शौक़ में तेरे है सरगर्दां
अगर ख़ुर्शीद निकला तेरा गर्म-ए-जुस्तुजू निकला

मय-ए-इशरत तलब करते थे नाहक़ आसमाँ से हम
वो था लबरेज़-ए-ग़म इस ख़ुम-कदे से जो सुबू निकला

तिरे आते ही आते काम आख़िर हो गया मेरा
रही हसरत कि दम मेरा न तेरे रू-ब-रू निकला

कहीं तुझ को न पाया गरचे हम ने इक जहाँ ढूँडा
फिर आख़िर दिल ही में देखा बग़ल ही में से तू निकला

ख़जिल अपने गुनाहों से हूँ मैं याँ तक कि जब रोया
तो जो आँसू मिरी आँखों से निकला सुर्ख़-रू निकला

घिसे सब नाख़ुन-ए-तदबीर और टूटी सर-ए-सोज़ान
मगर था दिल में जो काँटा न हरगिज़ वो कभू निकला

उसे अय्यार पाया यार समझे ‘ज़ौक़’ हम जिस को
जिसे याँ दोस्त अपना हम ने जाना वो उदू निकला

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koi mohabbat na kre to kya kare

कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे
और जो ये तंग करें मुँह से शिकायत न करे

इश्क़ के दाग़ को दिल मोहर-ए-नबूवत समझा
डर है काफ़िर कहीं दावा-ए-नबूवत न करे

है जराहत का मिरी सौदा-ए-अल्मास इलाज
फ़ाएदा उस को कभी संग-ए-जराहत न करे

हर क़दम पर मिरे अश्कों से रवाँ है दरिया
क्या करे जादा अगर तर्क-ए-रिफ़ाक़त न करे

आज तक ख़ूँ से मिरे तर है ज़बान-ए-ख़ंजर
क्या करे जब कि तलब कोई शहादत न करे

है ये इंसाँ बड़े उस्ताद का शागिर्द-ए-रशीद
कर सके कौन अगर ये भी ख़िलाफ़त न करे

बिन जले शम्अ के परवाना नहीं जल सकता
क्या बढ़े इश्क़ अगर हुस्न ही सब्क़त न करे

फिर चला मक़्तल-ए-उश्शाक़ की जानिब क़ातिल
सर पे बरपा कहीं कुश्तों के क़यामत न करे

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Kab haq parast zahid

कब हक़-परस्त ज़ाहिद-ए-जन्नत-परस्त है
हूरों पे मर रहा है ये शहवत-परस्त है

दिल साफ़ हो तो चाहिए मअ’नी-परस्त हो
आईना ख़ाक साफ़ है सूरत-परस्त है

दरवेश है वही जो रियाज़त में चुस्त हो
तारिक नहीं फ़क़ीर भी राहत-परस्त है

जुज़ ज़ुल्फ़ सूझता नहीं ऐ मुर्ग़-ए-दिल तुझे
ख़ुफ़्फ़ाश तू नहीं है कि ज़ुल्मत-परस्त है

दौलत की रख न मार-ए-सर-ए-गंज से उम्मीद
मूज़ी वो देगा क्या कि जो दौलत-परस्त है

अन्क़ा ने गुम किया है निशाँ नाम के लिए
गुम-गश्ता कौन कहता है शोहरत-परस्त है

ये ‘ज़ौक़’ मय-परस्त है या है सनम-परस्त
कुछ है बला से लेक मोहब्बत-परस्त है

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Ab to Ghabra ke ye kahte Hain

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली ऐ चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ
पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम
पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जाएँगे

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ
पर मुझे डर है कि वो देख के डर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

नहीं पाएगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़
हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया
चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

हम भी देखेंगे कोई अहल-ए-नज़र है कि नहीं
याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जाएँगे

‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे

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