Kab yaad men tera saath

Kab yaad meñ terā saath nahīñ kab haat meñ terā haat nahīñ
sad-shukr ki apnī rātoñ meñ ab hijr kī koī raat nahīñ
mushkil haiñ agar hālāt vahāñ dil bech aa.eñ jaañ de aa.eñ
dil vaalo kūcha-e-jānāñ meñ kyā aise bhī hālāt nahīñ

jis dhaj se koī maqtal meñ gayā vo shaan salāmat rahtī hai
ye jaan to aanī jaanī hai is jaañ kī to koī baat nahīñ
maidān-e-vafā darbār nahīñ yaañ nām-o-nasab kī pūchh kahāñ
āshiq to kisī kā naam nahīñ kuchh ishq kisī kī zaat nahīñ

gar baazī ishq kī baazī hai jo chāho lagā do Dar kaisā
gar jiit ga.e to kyā kahnā haare bhī to baazī maat nahīñ

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Aap kī yaad aatī rahī raat bhar

Aap kī yaad aatī rahī raat bhar
chāñdnī dil dukhātī rahī raat bhar
gaah jaltī huī gaah bujhtī huī
sham-e-ġham jhilmilātī rahī raat bhar

koī ḳhushbū badaltī rahī pairahan
koī tasvīr gaatī rahī raat bhar
phir sabā sāya-e-shāḳh-e-gul ke tale
koī qissa sunātī rahī raat bhar

jo na aayā use koī zanjīr-e-dar
har sadā par bulātī rahī raat bhar
ek ummīd se dil bahaltā rahā
ik tamannā satātī rahī raat bhar

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Tujhi ko jo yan

तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
बराबर है दुनिया को देखा न देखा

मिरा ग़ुंचा-ए-दिल है वो दिल गिरफ़्ता
कि जिस को किसू ने कभू वा न देखा

यगाना है तू आह बेगानगी में
कोई दूसरा और ऐसा न देखा

अज़िय्यत मुसीबत मलामत बलाएँ
तिरे इश्क़ में हम ने क्या क्या न देखा

किया मुज को दाग़ों ने सर्व-ए-चराग़ाँ
कभू तू ने आ कर तमाशा न देखा

तग़ाफ़ुल ने तेरे ये कुछ दिन दिखाए
इधर तू ने लेकिन न देखा न देखा

हिजाब-ए-रुख़-ए-यार थे आप ही हम
खुली आँख जब कोई पर्दा न देखा

शब ओ रोज़ ऐ ‘दर्द’ दर पे हूँ उस के
किसू ने जिसे याँ न समझा न देखा

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Sanam hazar hua

सनम हज़ार हुआ तो वही सनम का सनम
कि अस्ल हस्ती-ए-नाबूद है अदम का अदम

इसी जहान में गोया मुझे बहिश्त मिली
अगर रखोगे मिरे पर यही करम का करम

अभी तो तुम ने किए थे हमारी जाँ-बख़्शी
फिर एक दम में वही नीमचा अलम का अलम

वो गुल-बदन का अजब है मिज़ाज-ए-रंगा-रंग
फ़जर कूँ लुत्फ़ तो फिर शाम कूँ सितम का सितम

न रख ‘सिराज’ किसी ख़ूब-रू सें चश्म-ए-वफ़ा
सनम हज़ार हुआ तो वही सनम का सनम

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Main yar ka jalwa hun

मैं यार का जल्वा हूँ
या दीदा-ए-मूसा हूँ

क़तरा हूँ न दरिया हूँ
बस्ती हूँ न सहरा हूँ

जीना मिरा मरना है
मरने को तरसता हूँ

अपनी ही उमीदों का
बिगड़ा हुआ नक़्शा हूँ

अरमानों का गहवारा
हसरत का जनाज़ा हूँ

इस आलम-ए-हस्ती में
यूँ हूँ कि मैं गोया हूँ

ज़िंदा हूँ मगर बेदम
इक तुर्फ़ा-तमाशा हूँ

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Jag mein aa kar

जग में आ कर इधर उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा

जान से हो गए बदन ख़ाली
जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा

नाला फ़रियाद आह और ज़ारी
आप से हो सका सो कर देखा

उन लबों ने न की मसीहाई
हम ने सौ सौ तरह से मर देखा

ज़ोर आशिक़-मिज़ाज है कोई
‘दर्द’ को क़िस्सा मुख़्तसर देखा

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Fida kar jaan

फ़िदा कर जान अगर जानी यही है
अरे दिल वक़्त-ए-बे-जानी यही है

यही क़ब्र-ए-ज़ुलेख़ा सीं है आवाज़
अगर है यूसुफ़-ए-सानी यही है

नहीं बुझती है प्यास आँसू सीं लेकिन
करें क्या अब तो याँ पानी यही है

किसी आशिक़ के मरने का नहीं तरस
मगर याँ की मुसलमानी यही है

बिरह का जान कंदन है निपट सख़्त
शिताब आ मुश्किल आसानी यही है

पिरो तार-ए-पलक में दाना-ए-अश्क
कि तस्बीह-ए-सुलैमानी यही है

मुझे ज़ालिम ने गिर्यां देख बोला
कि इस आलम में तूफ़ानी यही है

ज़मीं पर यार का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा
हमारा ख़त्त-ए-पेशानी यही है

वो ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन लगती नहीं हात
मुझे सारी परेशानी यही है

न फिरना जान देना उस गली में
दिल-ए-बे-जान की बानी यही है

किया रौशन चराग़-ए-दिल कूँ मेरे
‘सिराज’ अब फ़ज़्ल-ए-रहमानी यही है

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Waseem Barelvi Shayari

हर साँस किसी मरहम से कम ना थी
मैं जैसे कोई ज़ख़्म था भरता चला गया

ये सोच कर मैं उसके बराबर नही गया
दरया के पास कोई समंदर नही गया

आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया

अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे
कोई दर खोले न खोले हम पुकारे जाएँगे

आज पी लेने दे जी लेने दे मुझ को साक़ी
कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे

इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू
तिरी निगाह को शायद सुबूत-ए-ग़म न मिले

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Ishq Mein Zillat Hui

इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई

अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह
दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई

लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे
ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई

खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं
दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई

पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई

मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद
पर जिसे ये वाक़िआ पहुँचा उसे वहशत हुई

शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई

दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ
गुज़रे उस भी सानेहे को हम-नशीं मुद्दत हुई

शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब
अब तलक आप ही पहुँचने की अगर ताक़त हुई

क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का
जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई

यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले
देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई

गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई

बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे
मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई

हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई

इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था
फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई

कम किसू को ‘मीर’ की मय्यत की हाथ आई नमाज़
ना’श पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई

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