daag dehlvi

Daag Dehlvi

Daag Dehlvi


daag dehlvi
Born Nawab Mirza Khan
25 May 1831
Delhi, Mughal Empire
Died 17 March 1905 (aged 73)
Hyderabad, Hyderabad state
Pen name Daagh
Occupation Poet
Nationality Indian
Period 1831 to 1905
Genre Ghazal, qasida, mukhammas
Subject Love and human relationships

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दाग देहलवी जिनका वास्तविक नाम नवाब मिर्ज़ा खां था का जन्म २५ मई, १८३१ को दिल्ली में हुआ | जब दाग़ पाँच-छह वर्ष के थे तभी इनके पिता मर गए। इनकी माता ने बहादुर शाह “ज़फर” के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया | तब वे भी दिल्ली में लाल किले में रहने लगे | यहाँ दाग को हर तरह की शिक्षा मिली और यहाँ वे शायरी करने लगे और जौक को अपना गुरु बनाया | सन 1856 में मिर्जा फखरू की मृत्यु हो गई और दूसरे ही वर्ष बलवा आरंभ हो गया, जिससे यह रामपुर चले गए |

Safre Zindagi Daag Dehlvi

वहाँ युवराज नवाब कल्ब अली खाँ के आश्रय में रहने लगे। सन् 1887 ई. में नवाब की मृत्यु हो जाने पर ये रामपुर से दिल्ली चले आए। घूमते हुए दूसरे वर्ष हैदराबाद पहुचे | पुन: निमंत्रित हो सन् 1890 ई. में दाग़ हैदराबाद गए और निज़ाम के शायरी के उस्ताद नियत हो गए। इन्हें यहाँ धन तथा सम्मान दोनों मिला | यहीं सन् 1905 ई. में फालिज से इनकी मृत्यु हुई। दाग़ शीलवान, विनम्र, विनोदी तथा स्पष्टवादी थे और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे। उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरी में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग़ देहलवी की शायरी इश्क़ और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।

Daag Ki Kitabe

गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। ‘फरियादे-दाग़’, इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। इनकी शैली सरलता और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी शायरी कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।

काबे की है हवास कभी कूए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिटटी कहाँ की है।

दाग़ देहलवी वर्ष 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में लाशों का नज़ारा उन्होंने देखा था। लाल क़िले से निकलकर तिनका-तिनका जोड़कर जो आशियाना उन्होंने बनवाया था, उसे बिखरते हुए भी देखा। अपने दस-बारह साल के कलाम की बर्बादी के वह मात्र एक मजबूर तमाशाई बनकर रह गये थे। क़िले से निकले अभी मुश्किल से आठ-नो महीने ही हुए थे कि इस तबाही ने उन्हें घेर लिया।

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sakeel-badayini

Shakeel Badayuni

Shakeel Badayuni


sakeel-badayini
Born 3 August 1916
Badaun, United Provinces of Agra and Oudh, British India
Died 20 April 1970
(aged 53)
Bombay, Maharashtra, India
Occupation Poet
Nationality Indian
Genre Ghazal
Subject Love, philosophy

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Kulliyat-e-Shakeel

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Shakeel Badayuni

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शकील बदायूँनी ( Shakeel Badayuni, जन्म: 3 अगस्त 1916 बदायूँ – मृत्यु: 20 अप्रॅल 1970) महान् शायर और गीतकार थे। तहजीब के शहर लखनऊ ने फ़िल्म जगत को कई हस्तियां दी हैं, जिनमें से एक गीतकार शकील बदायूँनी भी हैं। अपनी शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित होकर उन्होंने अपनी आपूर्ति विभाग की सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और वर्ष 1946 में दिल्ली से मुंबई आ गये थे। शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें अपना पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार वर्ष 1960 में प्रदर्शित “चौदहवी का चांद” फ़िल्म के ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..’ गाने के लिये दिया गया था।

मुंबई में उनकी मुलाकात उस समय के मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उर्फ कारदार साहब और महान् संगीतकार नौशाद से हुई। यहाँ उनके कहने पर उन्होंने ‘हम दिल का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे…’ गीत लिखा। यह गीत नौशाद साहब को काफ़ी पसंद आया जिसके बाद उन्हें तुरंत ही कारदार साहब की दर्द के लिये साईन कर लिया गया

शकील बदायूँनी ने क़रीब तीन दशक के फ़िल्मी जीवन में लगभग 90 फ़िल्मों के लिये गीत लिखे। उनके फ़िल्मी सफर पर एक नजर डालने से पता चलता है कि उन्होंने सबसे ज्यादा फ़िल्में संगीतकार नौशाद के साथ ही की। वर्ष 1947 में अपनी पहली ही फ़िल्म दर्द के गीत ‘अफ़साना लिख रही हूँ…’ की अपार सफलता से शकील बदायूँनी कामयाबी के शिखर पर जा बैठे। शकील बदायूँनी के रचित प्रमुख गीत निम्नलिखित हैं-

सम्मान और पुरस्कार

शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें अपना पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार वर्ष 1960 में प्रदर्शित चौदहवी का चांद फ़िल्म के चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो.. गाने के लिये दिया गया था। वर्ष 1961 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘घराना’ के गाने हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं.. के लिये भी सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। इसके अलावा 1962 में भी शकील बदायूँनी फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में कहीं दीप जले कहीं दिल.. गाने के लिये फ़िल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

फ़िल्मफेयर पुरस्कार

  1. वर्ष 1960 में चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो… (चौदहवीं का चांद)
  2. वर्ष 1961 में हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं… (घराना)
  3. वर्ष 1962 में कहीं दीप जले कहीं दिल… (बीस साल बाद, 1962)
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shahir-ludhanvi

Sahir Ludhianvi

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जन्म अब्दुलहयी
8 मार्च 1921
लुधियाना, भारत
मृत्यु 25 अक्टूबर 1980 (उम्र 59)
बंबई, भारत
व्यवसाय कवि, गीतकार

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Kulliyat-e-Sahir

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Sahir Ludhianvi

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साहिर लुधियानवी, वह जादूगर जो शब्दों को इस तरह से लिखता था, पिरोता था की वह सीधे दिल में उतर जाते थे | बल्कि आज भी उनके शायरी के लाखो दीवाने है | साहिर फिल्म इंडस्ट्री से करीब ३ दशक तक जुड़े रहे इस वक़्त में आपने सेकड़ो मशहूर गीत लिखे जो की आज भी हिन्दुस्तानी लोगो के दिलो पर राज़ कर रहे है | आपके कुछ गाने तो इस कदर मशहूर हुए की उन्हें आज भी गया और गुनगुनाया जाता है | वैसे भी पुराने गीतों की बात ही कुछ और है |

Safre Zindagi Sahir Ludhianvi

माहन शायर साहिर लुधियानवी ( Sahir Ludhianvi ) का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर में ज़मींदार परिवार में हुआ था। साहिल के बचपन का नाम अब्दुल हई था। इस नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। यूं तो ये नाम कुरान में शिद्दत से लिया जाता है किन्तु इस नाम को रखने का कारण कुछ और ही था।

वह घर जहा साहिर जन्मे थे लाल पत्थर की हवेली है जो लुधियाना के पास में करीमपुर में स्थित है | इस पर मुग़ल स्थापत्य की छाप है और यह यहाँ का मुग़ल दरवाजा बताता है |

Sahir Ludhianvi Shayari Ka Agaz

बचपन में एकबार एक मौलवी ने कहा कि ये बच्चा बहुत होशियार और अच्छा इंसान बनेगा। ये सुनकर मां के मन में सपने जन्म लेने लगे कि वह अपने बेटे को सिविल सर्जन या जज बनायेंगी। जाहिर है अब्दुल का जन्म जज या सिविल सर्जन बनने के लिये नही हुआ था। विधी ने तो कुछ और ही लिखा था। बचपन से ही वो शेरो-शायरी किया करते थे और उनका शौक दशहरे पर लगने वाले मेलों में नाटक देखना था। साहिर अपनी मां को बहुत मानते थे और तहे दिल से उनकी इज्जत करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि मां को कोई दुःख न हो।

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allama-iqwal

Allama Iqbal

Allama Iqbal


allama-iqwal

नाम – मुहम्मद इक़बाल ( Muhammad Iqbal )
प्रसिद्ध नाम – अल्लमा इक़बाल ( Allama Iqbal )
जन्मतिथि – 09 नवम्बर, 1877
जन्मस्थान – सियालकोट, पाकिस्तान
माता का नाम – इमाम बीबी
पिता का नाम – शेख नूर मुहम्मद
पत्नी – तीन पत्नियाँ (करीम बीबी, सरदार बेगम, मुख्तार बेगम)
सन्तान – मिराज बेगम (पुत्री), आफ़ताब इकबाल, जाविद इकबाल (पुत्र)
भाषा – हिंदी, अंग्रेजी, फ़ारसी
प्रसिद्धि – कवि, शायर और राजनीतिज्ञ
उपलब्धि – पाकिस्तान के राष्ट्रकवि
मृत्युतिथि – 21 अप्रैल, 1938

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अल्लमा इक़बाल या मुहम्मद इकबाल ( Muhammad Iqbal )

अल्लमा इक़बाल या मुहम्मद इकबाल ( Muhammad Iqbal ) अविभाजित भारत के एक महान उर्दू शायर एवं पाकिस्तान के “राष्ट्रकवि” थे. इक़बाल जी ने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा‘, ‘लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी‘ जैसी मशहूर गीतों की रचना की है. उर्दू और फ़ारसी में इनकी शायरी को आधुनिक काल की बेहतरीन शायरी में गिना जाता है.

  • मोहम्मद इक़बाल का जन्म ब्रिटिश भारत के समय पंजाब के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था।
  • इनके पिता का नाम शेख़ नूर मोहम्मद था, जोकि पेशे से एक दर्जी थे तथा इक़बाल की माता का नाम इमाम बीबी था।
  • इनकी प्रमुख रचनाएं हैं: असरार-ए-ख़ुदी, रुमुज़-ए-बेख़ुदी और बंग-ए-दारा, जिसमें देशभक्तिपूर्ण तराना-ए-हिन्द (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा) शामिल है। इनके द्वारा लिखी गईं रचनाएँ मुख्य रूप से फ़ारसी में हैं।
  • इक़बाल ने अंग्रेज़ी भाषा में केवल एक ही पुस्तक लिखी है, जिसका शीर्षक है, ‘सिक्स लेक्चर्स ऑन दि रिकन्सट्रक्शन ऑफ़ रिलीजस थॉट (धार्मिक चिन्तन की नवव्याख्या के सम्बन्ध में छह व्याख्यान)’ है।
  • भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले इक़बाल ने ही उठाया था।
  • साल 1930 में इक़बाल के नेतृत्व में ही ‘मुस्लिम लीग’ ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई थी।
  • मोहम्मद इक़बाल को अलामा इक़बाल (विद्वान इक़बाल), मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान (पाकिस्तान का विचारक), शायर-ए-मशरीक़ (पूरब का शायर) और हकीम-उल-उम्मत (उम्मा का विद्वान) के नाम से भी जाना जाता है।
  • इन्हें पाकिस्तान में राष्ट्रकवि माना जाता है।
  • इक़बाल की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने इन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की।
  • मोहम्मद इक़बाल का निधन 21 अप्रैल, 1938 ई. को हुआ था।

मुस्लिम राज्य का विचार

यूरोप धन और सत्ता के लिए पागल है। इस्लाम ही एकमात्र धर्म है, जो सच्चे जीवन मूल्यों का निर्माण कर सकता है और अनवरत संघर्ष के द्वारा प्रकृति के ऊपर मनुष्य को विजयी बना सकता है। उनकी रचनाओं ने भारत के मुसलमान युवकों में यह भावना भर दी कि, उनकी एक पृथक् भूमिका है। इक़बाल ने ही सबसे पहले 1930 ई. में भारत के सिंध के भीतर उत्तर-पश्चिम सीमाप्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध तथा कश्मीर को मिलाकर एक नया मुस्लिम राज्य बनाने का विचार रखा, जिसने पाकिस्तान को जन्म दिया।

मशहूर शायर ‘मनुव्वर राना’ का कहना है कि इक़बाल के जेहन में हमेशा वह हिन्दुस्तान था, जो किसी सरहद में नहीं बँटा था। वह कहते हैं कि ‘जिस तरह भगत सिंह के हिन्दुस्तान में पूरा हिन्दुस्तान शामिल था, उसी तरह इक़बाल के हिन्दुस्तान में भी पूरा हिन्दुस्तान शामिल था।

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mirjagalib

Mirza Ghalib

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mirjagalib
उपनाम: असद, ग़ालिब
जन्म: 27 दिसंबर, 1796
आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु: 15 फरवरी, 1869

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मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है।  ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला। ग़ालिब नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है।

उर्दू शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी और संघर्ष

उर्दू शायरी में किसी शख्स का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता हैं तो वह हैं मिर्ज़ा ग़ालिब. मिर्ज़ा ग़ालिब मुग़ल शासन के दौरान ग़ज़ल गायक, कवि और शायर हुआ करते थे. उर्दू भाषा के फनकार और शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम आज भी काफी अदब से लिया जाता हैं. उनके दवारा लिखी गई गज़लें और शायरियाँ आज भी युवाओं और प्रेमी जोड़ों को अपनी और आकर्षित करती हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरियाँ बेहद ही आसान और कुछ पंक्तियों में हुआ करती थी. जिसके कारण यह जन-मन में पहुँच गयी. आज हम आपको मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन से जुडी जानकारी और अनछुये पहलू बताएँगे.

शाही खिताब:

१८५० मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र २ ने मिर्ज़ा गालिब को “दबीर-उल-मुल्क” और “नज़्म-उद-दौला” के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे “मिर्ज़ा नोशा” क खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार मे एक महत्वपुर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह ज़फर २ के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मे मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।

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