uske chehre ki chamak ke samne

उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
आसमाँ पे चाँद पूरा था मगर आधा लगा

जिस घड़ी आया पलट कर इक मिरा बिछड़ा हुआ
आम से कपड़ों में था वो फिर भी शहज़ादा लगा

हर घड़ी तय्यार है दिल जान देने के लिए
उस ने पूछा भी नहीं ये फिर भी आमादा लगा

कारवाँ है या सराब-ए-ज़िंदगी है क्या है ये
एक मंज़िल का निशाँ इक और ही जादा लगा

रौशनी ऐसी अजब थी रंग-भूमी की ‘नसीम’
हो गए किरदार मुदग़म कृष्ण भी राधा लगा

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thokre kha ke sabhalna nhi ata

ठोकरें खा के सँभलना नहीं आता है मुझे
चल मिरे साथ कि चलना नहीं आता है मुझे

अपनी आँखों से बहा दे कोई मेरे आँसू
अपनी आँखों से निकलना नहीं आता है मुझे

अब तिरी गर्मी-ए-आग़ोश ही तदबीर करे
मोम हो कर भी पिघलना नहीं आता है मुझे

शाम कर देता है अक्सर कोई ज़ुल्फ़ों वाला
वर्ना वो दिन हूँ कि ढलना नहीं आता है मुझे

कितने दिल तोड़ चुका हूँ इसी बे-हुनरी से
जाल में फँस के निकलना नहीं आता है मुझे

बीच दरिया के मैं दरिया तो बदल सकता हूँ
अपनी कश्ती को बदलना नहीं आता है मुझे

अपने मा’नी को बदलना तो मुझे आता है
इन के लफ़्ज़ों को बदलना नहीं आता है मुझे

‘फ़रहत-एहसास’ तरक़्क़ी नहीं करनी मुझ को
इतनी रफ़्तार से चलना नहीं आता है मुझे

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tumhe us se mohabbat hai

तुम्हें उस से मोहब्बत है तो हिम्मत क्यूँ नहीं करते
किसी दिन उस के दर पे रक़्स-ए-वहशत क्यूँ नहीं करते

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से
मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते

तुम्हारे दिल पे अपना नाम लिक्खा हम ने देखा है
हमारी चीज़ फिर हम को इनायत क्यूँ नहीं करते

मिरी दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उस ने
तुम अपने घर की चीज़ों की हिफ़ाज़त क्यूँ नहीं करते

बदन बैठा है कब से कासा-ए-उम्मीद की सूरत
सो दे कर वस्ल की ख़ैरात रुख़्सत क्यूँ नहीं करते

क़यामत देखने के शौक़ में हम मर मिटे तुम पर
क़यामत करने वालो अब क़यामत क्यूँ नहीं करते

मैं अपने साथ जज़्बों की जमाअत ले के आया हूँ
जब इतने मुक़तदी हैं तो इमामत क्यूँ नहीं करते

तुम अपने होंठ आईने में देखो और फिर सोचो
कि हम सिर्फ़ एक बोसे पर क़नाअ’त क्यूँ नहीं करते

बहुत नाराज़ है वो और उसे हम से शिकायत है
कि इस नाराज़गी की भी शिकायत क्यूँ नहीं करते

कभी अल्लाह-मियाँ पूछेंगे तब उन को बताएँगे
किसी को क्यूँ बताएँ हम इबादत क्यूँ नहीं करते

मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना
तो फिर ‘एहसास-जी’ इस की इशाअ’त क्यूँ नहीं करते

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aakho se mohabbat ke eshare nikal aaye

आँखों से मोहब्बत के इशारे निकल आए
बरसात के मौसम में सितारे निकल आए

था तुझ से बिछड़ जाने का एहसास मगर अब
जीने के लिए और सहारे निकल आए

मैं ने तो यूँही ज़िक्र-ए-वफ़ा छेड़ दिया था
बे-साख़्ता क्यूँ अश्क तुम्हारे निकल आए

जब मैं ने सफ़ीने में तिरा नाम लिया है
तूफ़ान की बाहोँ से किनारे निकल आए

हम जाँ तो बचा लाते मगर अपना मुक़द्दर
इस भीड़ में कुछ दोस्त हमारे निकल आए

जुगनू इन्हें समझा था मगर क्या कहूँ ‘मंसूर’
मुट्ठी को जो खोला तो शरारे निकल आए

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Awargi ne dil ki ajab kaam kar diya

आवारगी ने दिल की अजब काम कर दिया
ख़्वाबों को बोझ नींदों को इल्ज़ाम कर दिया

कुछ आँसू अपने प्यार की पहचान बन गए
कुछ आँसुओं ने प्यार को बद-नाम कर दिया

जिस को बचाए रखने में अज्दाद बिक गए
हम ने उसी हवेली को नीलाम कर दिया

दिल को बचा के रक्खा था दुनिया से आज तक
ले आज हम ने ये भी तिरे नाम कर दिया

तुम ने नज़र झुका के जहाँ बात काट दी
हम ने वहीं फ़साने का अंजाम कर दिया

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Agar yu hi ye dil satata rahega

अगर यूँ ही ये दिल सताता रहेगा
तो इक दिन मिरा जी ही जाता रहेगा

मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
मिरी याद तुझ को दिलाता रहेगा

गली से तिरी दिल को ले तो चला हूँ
मैं पहुँचूँगा जब तक ये आता रहेगा

जफ़ा से ग़रज़ इम्तिहान-ए-वफ़ा है
तू कह कब तलक आज़माता रहेगा

क़फ़स में कोई तुम से ऐ हम-सफ़ीरो
ख़बर गुल की हम को सुनाता रहेगा

ख़फ़ा हो के ऐ ‘दर्द’ मर तो चला तू
कहाँ तक ग़म अपना छुपाता रहेगा

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Dil me ek teri tamanna jo basi hai

अब कहाँ और किसी चीज़ की जा रक्खी है
दिल में इक तेरी तमन्ना जो बसा रक्खी है

सर-ब-कफ़ मैं भी हूँ शमशीर-ब-कफ़ है तू भी
तू ने किस दिन पे ये तक़रीब उठा रक्खी है

दिल सुलगता है तिरे सर्द रवय्ये से मिरा
देख इस बर्फ़ ने क्या आग लगा रक्खी है

आइना देख ज़रा क्या मैं ग़लत कहता हूँ
तू ने ख़ुद से भी कोई बात छुपा रक्खी है

जैसे तू हुक्म करे दिल मिरा वैसे धड़के
ये घड़ी तेरे इशारों से मिला रक्खी है

मुतमइन मुझ से नहीं है जो रईयत मेरी
ये मिरा ताज रखा है ये क़बा रक्खी है

गौहर-ए-अश्क से ख़ाली नहीं आँखें ‘अनवर’
यही पूँजी तो ज़माने से बचा रक्खी है

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Mera Mukam Abhi Tak nhi Aya

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया

उस एक ख़्वाब की हसरत में जल बुझीं आँखें
वो एक ख़्वाब कि अब तक नज़र नहीं आया

करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

दिलों की बात बदन की ज़बाँ से कह देते
ये चाहते थे मगर दिल इधर नहीं आया

अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया

हरीम-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी से निस्बतें भी रहीं
मगर सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया

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Mujhe to Mohtaram krde

मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो’तबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे

ये रौशनी के तआ’क़ुब में भागता हुआ दिन
जो थक गया है तो अब इस को मुख़्तसर कर दे

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

सितारा-ए-सहरी डूबने को आया है
ज़रा कोई मिरे सूरज को बा-ख़बर कर दे

क़बीला-वार कमानें कड़कने वाली हैं
मिरे लहू की गवाही मुझे निडर कर दे

मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूँ तो मेरा ख़ुदा
उजाड़ दे मिरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे

मिरी ज़मीन मिरा आख़िरी हवाला है
सो मैं रहूँ न रहूँ इस को बारवर कर दे

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Tu ab bhi mujhse khafa hai kya

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से

हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो
जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से

दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से

खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से

अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से

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