uske chehre ki chamak ke samne

उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
आसमाँ पे चाँद पूरा था मगर आधा लगा

जिस घड़ी आया पलट कर इक मिरा बिछड़ा हुआ
आम से कपड़ों में था वो फिर भी शहज़ादा लगा

हर घड़ी तय्यार है दिल जान देने के लिए
उस ने पूछा भी नहीं ये फिर भी आमादा लगा

कारवाँ है या सराब-ए-ज़िंदगी है क्या है ये
एक मंज़िल का निशाँ इक और ही जादा लगा

रौशनी ऐसी अजब थी रंग-भूमी की ‘नसीम’
हो गए किरदार मुदग़म कृष्ण भी राधा लगा