thokre kha ke sabhalna nhi ata

ठोकरें खा के सँभलना नहीं आता है मुझे
चल मिरे साथ कि चलना नहीं आता है मुझे

अपनी आँखों से बहा दे कोई मेरे आँसू
अपनी आँखों से निकलना नहीं आता है मुझे

अब तिरी गर्मी-ए-आग़ोश ही तदबीर करे
मोम हो कर भी पिघलना नहीं आता है मुझे

शाम कर देता है अक्सर कोई ज़ुल्फ़ों वाला
वर्ना वो दिन हूँ कि ढलना नहीं आता है मुझे

कितने दिल तोड़ चुका हूँ इसी बे-हुनरी से
जाल में फँस के निकलना नहीं आता है मुझे

बीच दरिया के मैं दरिया तो बदल सकता हूँ
अपनी कश्ती को बदलना नहीं आता है मुझे

अपने मा’नी को बदलना तो मुझे आता है
इन के लफ़्ज़ों को बदलना नहीं आता है मुझे

‘फ़रहत-एहसास’ तरक़्क़ी नहीं करनी मुझ को
इतनी रफ़्तार से चलना नहीं आता है मुझे