thi jiski justjo mujhko

थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
इन बस्तियों में हम को रिफ़ाक़त नहीं मिली

अब तक हैं इस गुमाँ में कि हम भी हैं दहर में
इस वहम से नजात की सूरत नहीं मिली

रहना था उस के साथ बहुत देर तक मगर
इन रोज़ ओ शब में मुझ को ये फ़ुर्सत नहीं मिली

कहना था जिस को उस से किसी वक़्त में मुझे
इस बात के कलाम की मोहलत नहीं मिली

कुछ दिन के बा’द उस से जुदा हो गए ‘मुनीर’
उस बेवफ़ा से अपनी तबीअ’त नहीं मिली

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bechain bhaut firna ghabraye

बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना

छलकाए हुए चलना ख़ुशबू लब-ए-लालीं की
इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना

उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
पर्दे में चले जाना शरमाए हुए रहना

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चाँद सा आँखों में चमकाए हुए रहना

आदत ही बना ली है तुम ने तो ‘मुनीर’ अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना

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khayal jiska tha mujhe

ख़याल जिस का था मुझे ख़याल में मिला मुझे
सवाल का जवाब भी सवाल में मिला मुझे

गया तो इस तरह गया कि मुद्दतों नहीं मिला
मिला जो फिर तो यूँ कि वो मलाल में मिला मुझे

तमाम इल्म ज़ीस्त का गुज़िश्तगाँ से ही हुआ
अमल गुज़िश्ता दौर का मिसाल में मिला मुझे

हर एक सख़्त वक़्त के बाद और वक़्त है
निशाँ कमाल-ए-फ़िक्र का ज़वाल में मिला मुझे

निहाल सब्ज़ रंग में जमाल जिस का है ‘मुनीर’
किसी क़दीम ख़्वाब के मुहाल में मिला मुझे

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aaina ab juda nhi karta

आइना अब जुदा नहीं करता
क़ैद में हूँ रिहा नहीं करता

मुस्तक़िल सब्र में है कोह-ए-गिराँ
नक़्श-ए-इबरत सदा नहीं करता

रंग-ए-महफ़िल बदलता रहता है
रंग कोई वफ़ा नहीं करता

ऐश-ए-दुनिया की जुस्तुजू मत कर
ये दफ़ीना मिला नहीं करता

जी में आए जो कर गुज़रता है
तू किसी का कहा नहीं करता

एक वारिस हमेशा होता है
तख़्त ख़ाली रहा नहीं करता

अहद-ए-इंसाफ़ आ रहा है ‘मुनीर’
ज़ुल्म दाएम हुआ नहीं करता

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mujhko yar ne jane na diya

उस सम्त मुझ को यार ने जाने नहीं दिया
इक और शहर-ए-यार में आने नहीं दिया

कुछ वक़्त चाहते थे कि सोचें तिरे लिए
तू ने वो वक़्त हम को ज़माने नहीं दिया

मंज़िल है उस महक की कहाँ किस चमन में है
उस का पता सफ़र में हवा ने नहीं दिया

रोका अना ने काविश-ए-बे-सूद से मुझे
उस बुत को अपना हाल सुनाने नहीं दिया

है जिस के बा’द अहद-ए-ज़वाल-आश्ना ‘मुनीर’
इतना कमाल हम को ख़ुदा ने नहीं दिया

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pi le to kuch pata nhi

पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
वो उस का साया था कि वही रश्क-ए-हूर था

कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था

रोया था कौन कौन मुझे कुछ ख़बर नहीं
मैं उस घड़ी वतन से कई मील दूर था

शाम-ए-फ़िराक़ आई तो दिल डूबने लगा
हम को भी अपने आप पे कितना ग़ुरूर था

चेहरा था या सदा थी किसी भूली याद की
आँखें थीं उस की यारो कि दरिया-ए-नूर था

निकला जो चाँद आई महक तेज़ सी ‘मुनीर’
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई ज़रूर था

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koi had nhi hai kamal ki

कोई हद नहीं है कमाल की
कोई हद नहीं है जमाल की

वही क़ुर्ब ओ दूर की मंज़िलें
वही शाम ख़्वाब-ओ-ख़याल की

न मुझे ही उस का पता कोई
न उसे ख़बर मिरे हाल की

ये जवाब मेरी सदा का है
कि सदा है उस के सवाल की

ये नमाज़-ए-अस्र का वक़्त है
ये घड़ी है दिन के ज़वाल की

वो क़यामतें जो गुज़र गईं
थीं अमानतें कई साल की

है ‘मुनीर’ तेरी निगाह में
कोई बात गहरे मलाल की

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mohabbat to hain

कहो न ये कि मोहब्बत है तीरगी से मुझे
डरा दिया है पतंगों ने रौशनी से मुझे

सफ़ीना शौक़ का अब के जो डूब कर उभरा
निकाल ले गया दरिया-ए-बे-ख़ुदी से मुझे

है मेरी आँख में अब तक वही सफ़र का ग़ुबार
मिला जो राह में सहरा-ए-आगही से मुझे

ख़िरद इन्ही से बनाती है रहबरी का मिज़ाज
ये तजरबे जो मयस्सर हैं गुमरही से मुझे

अभी तो पाँव से काँटे निकालता हूँ मैं
अभी निकाल न गुलज़ार-ए-ज़िंदगी से मुझे

ज़बान-ए-हाल से कहता है नाज़-ए-इश्वा-गरी
हया छुपा न सकी चश्म-ए-मज़हरी से मुझे

बराए दाद-ए-सुख़न कासा-ए-सवाल हो दिल
ख़ुदा बचाए ‘जमील’ इस गदागरी से मुझे

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mai kya btao kya ho main

मैं क्या बताऊँ कि तू क्या है और क्या हूँ मैं
हुजूम-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी में खो गया हूँ मैं

पिन्हा दे कोई मोहब्बत की एक कड़ी ज़ंजीर
कि क़ैद-ए-फ़र्ज़ से बाहर निकल गया हूँ मैं

सवाब को नई शक्लें जो दे रहा है तू
गुनाह के नए साँचे बना रहा हूँ मैं

जुनूँ मिरा ख़िरद-आसूदा-ए-नताएज है
ख़ुद अपने पाँव की ज़ंजीर ढालता हूँ मैं

मिरी नज़र में तजल्ली की क्या हक़ीक़त है
तजल्लियों की हक़ीक़त को देखता हूँ मैं

गिरा चुका था जिसे कल नज़र से अपनी ‘जमील’
ग़ुरूर अब उसी पस्ती पे कर रहा हूँ मैं

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hamara to koi sahara nhi

हमारा तो कोई सहारा नहीं है
ख़ुदा है तो लेकिन हमारा नहीं है

मोहब्बत की तल्ख़ी गवारा है लेकिन
हक़ीक़त की तल्ख़ी गवारा नहीं है

मिरी ज़िंदगी वो ख़ला है कि जिस में
कहीं दूर तक कोई तारा नहीं है

ख़ुदा क्या ख़ुदी को भी आवाज़ दी है
मुसीबत में किस को पुकारा नहीं है

सराब इक हक़ीक़त है आब इक तसव्वुर
यही ज़िंदगी है तो चारा नहीं है

हम अपनी ही आँखों का पर्दा उलट दें
हक़ीक़त को ये भी गवारा नहीं है

वो क्या उन के गेसू सँवारेगा जिस ने
गरेबाँ भी अपना सँवारा नहीं है

ख़ुदा उस से निपटे तो निपटे कि ये दिल
हमारा नहीं है तुम्हारा नहीं है

नज़र उन की गोशा-नशीं है हया से
इशारा नहीं ये इशारा नहीं है

हमारा है क्या जब हमारा इरादा
हमारा है लेकिन हमारा नहीं है

गरेबाँ बहुत से हुए पारा पारा
नक़ाब एक भी पारा पारा नहीं है

किसी के लिए दिल को सुलगा के देखो
जहन्नम कोई इस्तिआरा नहीं है

ब-जुज़ ‘मज़हरी’ के सभी बज़्म में हैं
वही तेरे वादों का मारा नहीं है

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