Hangama-e-gham se tang aa kar izhaar-e-masarrat

हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे

कोशिश तो बहुत की हम ने मगर पाया न ग़म-ए-हस्ती से मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बढ़ी घबरा के मोहब्बत कर बैठे

हस्ती के तलातुम में पिन्हाँ थे ऐश ओ तरब के धारे भी
अफ़्सोस हमी से भूल हुई अश्कों पे क़नाअत कर बैठे

ज़िंदान-ए-जहाँ से ये नफ़रत ऐ हज़रत-ए-वाइज़ क्या कहना
अल्लाह के आगे बस न चला बंदों से बग़ावत कर बैठे

गुलचीं ने तो कोशिश कर डाली सूनी हो चमन की हर डाली
काँटों ने मुबारक काम किया फूलों की हिफ़ाज़त कर बैठे

हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद वो मोहब्बत कर बैठे

अल्लाह तो सब की सुनता है जुरअत है ‘शकील’ अपनी अपनी
‘हाली’ ने ज़बाँ से उफ़ भी न की ‘इक़बाल’ शिकायत कर बैठे