Har gosha-e-nazar meñ samāe hue ho tum

har gosha-e-nazar meñ samāe hue ho tum
jaise ki mire sāmne aae hue ho tum

merī nigāh-e-shauq pe chhāe hue ho tum
jalvoñ ko ḳhud hijāb banāe hue ho tum

kyuuñ ik taraf nigāh jamāe hue ho tum
kyā raaz hai jo mujh se chhupāe hue ho tum

dil ne tumhāre husn ko baḳhshī haiñ rifateñ
dil ko magar nazar se girāe hue ho tum

ye jo niyāz-e-ishq kā ehsās hai tumheñ
shāyad kisī ke naaz uThāe hue ho tum

yā mehrbāniyoñ ke hī qābil nahīñ huuñ maiñ
yā vāqaī kisī ke sikhā.e hue ho tum

ab imtiyāz-e-parda-o-jalva nahīñ mujhe
chehre se kyuuñ naqāb uThāe hue ho tum

uf re sitam ‘shakīl’ ye hālat to ho gaī
ab bhī karam kī aas lagāe hue ho tum

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sheikh abdul qadir jilani family tree

Hajrat Ghause Azam Ka Gharana (Family Tree)

HAZRAT Ghaus E Azam Shaykh Abdul Qadir al-Jilani Alayhi Rahma
Son of Syed Abu Saleh Moosa Jangi Dos,
Son of Syed Abdullah Al-Jeeli,
Son of Syed Yahya Al-Zahid,
Son of Syed Muhammad,
Son of Syed Dawood,
Son of Syed Moosa,
Son of Syed Abdullah,
Son of Syed Moosa-Ul-Jown,
Son of Syed Abdullah Al-Hehadh,
Son of Syed Hasan Massna,
Son of HAZRAT IMAM HASAN MUJTABA (ALAIHIS SALAAM)
Son of HAZRAT SYEDNA ALI IBN ABI TALIB karramallahu wajhahu,

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Chamatkar – Munshi Prem Chandra

बी.ए. पास करने के बाद चन्द्रप्रकाश को एक टयूशन करने के सिवा और कुछ न सूझा। उसकी माता पहले ही मर चुकी थी, इसी साल पिता का भी देहान्त हो गया और प्रकाश जीवन के जो मधुर स्वप्न देखा करता था, वे सब धूल में मिल गये। पिता ऊँचे ओहदे पर थे, उनकी कोशिश से चन्द्रप्रकाश को कोई अच्छी जगह मिलने की पूरी आशा थी; पर वे सब मनसूबे धरे रह गये और अब गुजर-बसर के लिए वही 30) महीने की टयूशन रह गई। पिता ने कुछ सम्पत्ति भी न छोड़ी, उलटे वधू का बोझ और सिर पर लाद दिया और स्त्री भी मिली, तो पढ़ी-लिखी, शौकीन, जबान की तेज जिसे मोटा खाने और मोटा पहनने से मर जाना कबूल था। चन्द्रप्रकाश को 30) की नौकरी करते शर्म तो आयी; लेकिन ठाकुर साहब ने रहने का स्थान देकर उसके आँसू पोंछ दिये। यह मकान ठाकुर साहब के मकान से बिलकुल मिला हुआ था पक्का, हवादार, साफ-सुथरा और जरूरी सामान से लैस। ऐसा मकान 20) से कम पर न मिलता, काम केवल दो घंटे का। लड़का था तो लगभग उन्हीं की उम्र का; पर बड़ा कुन्दजेहन, कामचोर। अभी नवें दरजे में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात यह कि ठाकुर और ठाकुराइन दोनों प्रकाश का बहुत आदर करते थे, बल्कि उसे लड़का ही समझते थे। वह नौकर नहीं, घर का आदमी था और घर के हर एक मामले में उसकी सलाह ली जाती थी। ठाकुर साहब अँगरेजी नहीं जानते थे। उनकी समझ में अँगरेजीदाँ लौंडा भी उनसे ज्यादा बुद्धिमान, चतुर और तजरबेकार था।

सन्ध्या का समय था। प्रकाश ने अपने शिष्य वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठायी, तो ठाकुराइन ने आकर कहा, अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करनी है।

प्रकाश ने मन में सोचा आज कैसी सलाह है, वीरेन्द्र के सामने क्यों नहीं कहा ? उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा-तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू को ब्याह दूं ? एक बहुत अच्छे घर से सन्देशा आया है।

प्रकाश ने मुस्कराकर कहा- यह तो बीरू बाबू ही से पूछिए।

‘नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।’

प्रकाश ने असमंजस में पड़कर कहा- मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ ? उनका बीसवाँ साल तो है; लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका।

‘तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?’

‘जैसा आप उचित समझें। मैंने तो दोनों बातें कह दीं।’

‘तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय।’

‘मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।’

‘सब तैयारियाँ तुम्हीं को करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।’

‘तो मैं इनकार कब करता हूँ।’

रोटी की खैर मनोनवाले शिक्षित युवकों में एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमजोरी थी।

बात पक्की हो गयी और विवाह का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन मनुष्यों में थे, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री, उनके साठ साल के अनुभव से कहीं मूल्यवान् थी। विवाह का सारा आयोजन प्रकाश के हाथों में था। दस-बारह हजार रुपये खर्च करने का अधिकार कुछ कम गौरव की बात न थी। देखते-देखते ही फटेहाल युवक जिम्मेदार मैनेजर बन बैठा। कहीं कपड़ेवाला उसे सलाम करने आया है; कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए है; कहीं गैस और शामियानेवाला खुशामद कर रहा है। वह चाहता, तो दो-चार सौ रुपये बड़ी आसानी से बना लेता, लेकिन इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या दगा करता, जिसने सबकुछ उसी पर छोड़ दिया था। पर जिस दिन उसने पाँच हजार के जेवर खरीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा।

घर आकर चम्पा से बोला, हम तो यहाँ रोटियों के मुहताज हैं और दुनिया में ऐसे आदमी पड़े हुए हैं जो हजारों-लाखों रुपये के जेवर बनवा डालते हैं। ठाकुर साहब ने आज बहू के चढ़ावे के लिए पाँच हजार के जेवर खरीदे। ऐसी-ऐसी चीजें कि देखकर आँखें ठण्डी हो जायँ। सच कहता हूँ, बाज चीजों पर तो आँख नहीं ठहरती थी।

चम्पा ईर्ष्या-जनित विराग से बोली- ऊँह, हमें क्या करना है ? जिन्हें ईश्वर ने दिया है, वे पहनें। यहाँ तो रोकर मरने ही के लिए पैदा हुए हैं।

चन्द्रप्रकाश – इन्हीं लोगों की मौज़ है। न कमाना, न धमाना। बाप-दादा छोड़ गये हैं, मजे से खाते और चैन करते हैं। इसी से कहता हूँ, ईश्वर बड़ा अन्यायी है।

चम्पा- अपना-अपना पुरुषार्थ है, ईश्वर का क्या दोष ? तुम्हारे बाप-दादा छोड़ गये होते, तो तुम भी मौज करते। यहाँ तो रोटियाँ चलना मुश्किल हैं, गहने-कपड़े को कौन रोये। और न इस जिन्दगी में कोई ऐसी आशा ही है। कोई गत की साड़ी भी नहीं रही कि किसी भले आदमी के घर जाऊँ, तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच में हूँ कि ठकुराइन के यहाँ ब्याह में कैसे जाऊँगी। सोचती हूँ, बीमार पड़ जाती तो जान बचती।

यह कहते-कहते चम्पा की आँखें भर आयीं।

प्रकाश ने तसल्ली दी- साड़ी तुम्हारे लिए लाऊँ। अब क्या इतना भी न कर सकूँगा ? मुसीबत के ये दिन क्या सदा बने रहेंगे ? जिन्दा रहा, तो एक दिन तुम सिर से पाँव तक जेवरों से लदी रहोगी।

चम्पा मुस्कराकर बोली- चलो, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। निबाह होता जाय, यही बहुत है। गहनों की साध नहीं है।

प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर लज्जा और दु:ख से सिर झुका लिया। चम्पा उसे इतना पुरुषार्थहीन समझती है।

रात को दोनों भोजन करके लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों में बसे हुए थे- इस शहर में ऐसे बढ़िया गहने बनते हैं, मुझे इसकी आशा न थी।

चम्पा ने कहा- क़ोई और बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है।

‘वैसी चीजें तुम पहनो, तो रानी मालूम होने लगो।’

‘गहनों से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है ? तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दीखने लगती हैं।’

‘ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमें से कोई चीज चम्पा के लिए भी लेते जाओ।’

‘तुम भी कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो ?’

‘इसमें बचपने की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।’

‘मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी नहीं देखा, जो अपनी बहू के गहने किसी गैर को दे दे।’

‘मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं। मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इन्तजाम कर रहा हूँ। अगर सौ-दो सौ की कोई चीज दे देते, तो वह निष्फल न जाती। मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उनमें उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।’

रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार ही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है।

सहसा प्रकाश चारपाई से उठ खड़ा हुआ। उसे चम्पा का आभूषणहीन अंग देखकर दया आयी। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हर एक चीज के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया। ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पाँच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढ़कर ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था।

उसने सोचा पहले जीने से उतरकर ठाकुर साहब के कमरे में चलूँ। अगर वह जाग गये, तो जोर से हँसूँगा और कहूँगा-क़ैसा चरका दिया, या कह दूँगा- मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखायी दिया, इसलिए मैं भी उसके पीछे-पीछे आया कि देखूँ, यह क्या करता है। अगर सन्दूक की कुंजी मिल गयी तो फिर फतह है। किसी को मुझ पर सन्देह ही न होगा। सब लोग नौकरों पर सन्देह करेंगे, मैं भी कहूँगा- साहब ! नौकरों की हरकत है, इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है ? मैं बेदाग बच जाऊँगा ! शादी के बाद कोई दूसरा घर लूँगा। फिर धीरे-धीरे एक-एक चीज चम्पा को दूंगा,जिसमें उसे कोई सन्देह न हो।

फिर भी वह जीने से उतरने लगा तो उसकी छाती धड़क रही थी।

धूप निकल आयी थी। प्रकाश अभी सो रहा था कि चम्पा ने उसे जगाकर कहा- बड़ा गजब हो गया। रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गयी। चोर गहने की सन्दूकची उठा ले गया।

प्रकाश ने पड़े-पड़े पूछा- क़िसी ने पकड़ा नहीं चोर को ?

‘किसी को खबर भी हो ! वह सन्दूकची ले गया, जिसमें ब्याह के गहने रखे थे। न-जाने कैसे कुंजी उड़ा ली और न-जाने कैसे उसे मालूम हुआ कि इस सन्दूक में सन्दूकची रखी है !’

‘नौकरों की कार्रवाई होगी। बाहरी चोर का यह काम नहीं है।’

‘नौकर तो उनके तीनों पुराने हैं।’

‘नीयत बदलते क्या देर लगती है ! आज मौका देखा, उठा ले गये !’

‘तुम जाकर जरा उन लोगों को तसल्ली तो दो। ठाकुराइन बेचारी रो रही थीं। तुम्हारा नाम ले-लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन गहनों के लिए दौड़ा, एक-एक चीज अपने सामने जँचवायी और चोर दाढ़ीजारों ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।’

प्रकाश चटपट उठ बैठा और घबड़ाता हुआ-सा जाकर ठाकुराइन से बोला- यह तो बड़ा अनर्थ हो गया माताजी, मुझसे तो अभी-अभी चम्पा ने कहा।

ठाकुर साहब सिर पर हाथ रखे बैठे हुए थे। बोले- क़हीं सेंध नहीं, कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाजे की चूल नहीं उतरी। समझ में नहीं आता, चोर आया किधर से !

ठाकुराइन ने रोकर कहा- मैं तो लुट गयी भैया, ब्याह सिर पर खड़ा है, कैसे क्या होगा, भगवान् ! तुमने दौड़-धूप की थी, तब कहीं जाके चीजें आयी थीं। न-जाने किस मनहूस सायत से लग्न आयी थी।

प्रकाश ने ठाकुर साहब के कान में कहा- मुझे तो किसी नौकर की शरारत मालूम होती है।

ठाकुराइन ने विरोध किया- अरे नहीं भैया, नौकरों में ऐसा कोई नहीं। दस-दस हजार रुपये यों ही ऊपर रखे रहते थे, कभी एक पाई भी नहीं गयी।

ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़कर कहा- तुम क्या जानो, आदमी का मन कितना जल्द बदल जाया करता है। जिसने अब तक चोरी नहीं की, वह कभी चोरी न करेगा, यह कोई नहीं कह सकता। मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा और एक-एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पड़ेंगे तो आप ही कबूलेंगे। प्रकाश ने पुलिस का घर में आना खतरनाक समझा। कहीं उन्हीं के घर में तलाशी ले, तो अनर्थ ही हो जाय। बोले- पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना व्यर्थ है। पुलिस माल तो न बरामद कर सकेगी। हाँ, नौकरों को मार-पीट भले ही लेगी। कुछ नजर भी उसे चाहिए, नहीं तो कोई दूसरा ही स्वाँग खड़ा कर देगी। मेरी तो सलाह है कि एक-एक नौकर को एकान्त में बुलाकर पूछा जाय।

ठाकुर साहब ने मुँह बनाकर कहा- तुम भी क्या बच्चों की-सी बात करते हो, प्रकाश बाबू ! भला चोरी करने वाला अपने आप कबूलेगा? तुम मारपीट भी तो नहीं करते। हाँ, पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी फजूल मालूम होता है। माल बरामद होने से रहा, उलटे महीनों की परेशानी हो जायेगी।

प्रकाश – लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा।

ठाकुर – क़ोई लाभ नहीं। हाँ, अगर कोई खुफिया पुलिस हो, जो चुपके-चुपके पता लगावे, तो अलबत्ता माल निकल आये; लेकिन यहाँ ऐसी पुलिस कहाँ ? तकदीर ठोंककर बैठ रहो और क्या।’

प्रकाश – ‘आप बैठ रहिए; लेकिन मैं बैठने वाला नहीं। मैं इन्हीं नौकरों के सामने चोर का नाम निकलवाऊँगा !

ठाकुराइन – नौकरों पर मुझे पूरा विश्वास है। किसी का नाम निकल भी आये, तो मुझे सन्देह ही रहेगा। किसी बाहर के आदमी का काम है। चाहे जिधर से आया हो; पर चोर आया बाहर से। तुम्हारे कोठे से भी तो आ सकता है!

ठाकुर- हाँ, जरा अपने कोठे पर तो देखो, शायद कुछ निशान मिले। कल दरवाजा तो खुला नहीं रह गया ?

प्रकाश का दिल धड़कने लगा। बोला- मैं तो दस बजे द्वार बन्द कर लेता हूँ। हाँ, कोई पहले से मौका पाकर कोठे पर चला गया हो और वहाँ छिपा बैठा रहा हो, तो बात दूसरी है।

तीनों आदमी छत पर गये तो बीच की मुँड़ेर पर किसी के पाँव की रगड़ के निशान दिखाई दिये। जहाँ पर प्रकाश का पाँव पड़ा था वहाँ का चूना लग जाने के कारण छत पर पाँव का निशान पड़ गया था। प्रकाश की छत पर जाकर मुँड़ेर की दूसरी तरफ देखा तो वैसे ही निशान वहाँ भी दिखाई दिये। ठाकुर साहब सिर झुकाये खड़े थे, संकोच के मारे कुछ कह न सकते थे। प्रकाश ने उनके मन की बात खोल दी- इससे तो स्पष्ट होता है कि चोर मेरे ही घर में से आया। अब तो कोई सन्देह ही नहीं रहा।

ठाकुर साहब ने कहा- हाँ, मैं भी यही समझता हूँ; लेकिन इतना पता लग जाने से ही क्या हुआ। माल तो जाना था, सो गया। अब चलो, आराम से बैठें ! आज रुपये की कोई फिक्र करनी होगी।

प्रकाश – मैं आज ही वह घर छोड़ दूंगा।

ठाकुर- क्यों, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं।

प्रकाश – आप कहें; लेकिन मैं समझता हूँ मेरे सिर बड़ा भारी अपराध लग गया। मेरा दरवाजा नौ-दस बजे तक खुला ही रहता है। चोर ने रास्ता देख लिया। संभव है, दो-चार दिन में फिर आ घुसे। घर में अकेली एक औरत सारे घर की निगरानी नहीं कर सकती। इधर वह तो रसोई में बैठी है, उधर कोई आदमी चुपके से ऊपर चढ़ जाय, तो जरा भी आहट नहीं मिल सकती। मैं घूम-घामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे। और शादी के दिनों में तो देर होती ही रहेगी। उधर का रास्ता बन्द हो जाना चाहिए। मैं तो समझता हूँ, इस चोरी की सारी जिम्मेदारी मेरे सिर है।

ठाकुराइन डरीं – तुम चले जाओगे भैया, तब तो घर और फाड़ खायगा।

प्रकाश – क़ुछ भी हो माताजी, मुझे बहुत जल्द घर छोड़ना ही पड़ेगा। मेरी गफ़लत से चोरी हुई, उसका मुझे प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा।

 

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Kaha se badke pauche h kaha tak eilm-o-fun saki

कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी

ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी

सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी

रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी

न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी

तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी

अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी

वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी

लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी

मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी

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Salame Barghahe Ghause Azam

Sardare Auliya ko hamara salam ho
Waliyon ke peshwa ko hamara salam ho

Chooron ko jisne Qutub o Abdaal kar diya
Aalam ke rehnuma ko hamara salam ho

Baghdad ke shahenshah mere deen ke Moin
Sultane Asfiya ko hamara salam ho

Mujhpe karam kiya mere data karim ne
Uss Dafay e Bala ko hamara salam ho

Kis se kahe tu ja ke kahe dil ki dastan
Gum khwar ghum zuda ko hamara salam ho

Illa Takhaf keh ke be khauf kar diya
Sultan e Do jaha ko hamara salam ho

Syed ko bhi suna do muzda shafa ato ka
Rehbar o Rehnuma ko hamara salam ho🌹🌹🌹

 

by – Kalame Sayyed
Sehzadaye Sarkare Gouse Azam Ale Rasool
Sayyed Mohsin Qadri Barkati (Davanagere . Karnataka )

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Laabo Pe Jis Ghadi Naame Mohammed Raks Karta Hai

Laabo Pe Jis Ghadi Naame Mohammed Raks Karta Hai
Tasaoor Unke Daman Se Lipat Kar Raks Karta Hai

Nahi Kabo Me Rahte Ab Zameeno Asman Sunlo
Tadap Kar Jab Mohammed Ka Khalndar Raks Karta Hai

Pilade Payso Ko Paani Shifa De Daste Khudrat Se
Ke Unki ungliyo me Bhi Samandar Raks Karta Hai

Dare Pak-e Rasoolallaha ki Bate Nirali Hai
Unhi Ka Naam Sun-Sunkar Haye ” Syed ” Raks Karta Hai

by – Sehzadaye Sarkare Ghouse-Azam
Ale Rasool Sayyed Mohsin Pasha Qadri Barkati Al-jillani ) Davanagere . Karnataka .

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Dalile Kibriya Bankar Mohammad Mustafa Aye

Dalile Kibriya Bankar Mohammad Mustafa Aye
Shafiye Do – Saara Bankar Mohammad Mustafa Aye

Nigare Ambiya Aye Habibe Kibriya Aye
Rissalat Ki Ziya Bankar Mohammad Mustafa Aye

Baharo Par Bahare Aagayi Sahne Gulista Me
Bahare Jaa-Fizza Bankar Mohammad Mustafa Aye

Na Ghab Ra-o Gunehgaro Milega Chain Bimaro
Ghame Dil Ki Dawa Bankar Mohammad Mustafa Aye

Jaaha Ki Ibteda Aye Jaaha Ki Inteha Aye
Dilo ki Roshni Bankar Mohammad Mustafa Aye

Hai Rahmat Har Taraf Chayi Gunehgaro Ki Ban Ayi
Hamara asra Bankar Mohammad Mustafa Aye

Habibe Kibriya ki Baat Ho Syed ” Aur Teri Juban

Karam ki inteha Bankar Mohammad Mustafa Aye

by – Dil Fidaye Sarkare Ghouse Azam .
Sayyed Mohsin Pasha Qadri Barkati Al-jillani). Davanagere Karnataka

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Sunahra Saal Gaya

Sad Birthday Shayari in Hindi

Kuchh Ḳhushiyan Kuchh Aansu De Kar Taal Gaya,
Jivan Ka Ik Aur Sunahra Saal Gaya.

कुछ खुशियाँ कुछ आँसू दे कर टाल गया,
जीवन का इक और सुनेहरा साल गया।

Maa Ki Dua Na Baap Ki Shafqat Ka Saaya Hai,
Aaj Apne Saath Apna Janam Din Manaya Hai.

माँ कि दुआ न बाप की शफकत का साया है,
आज अपने साथ अपना जन्मदिन मनाया है।

Main Takiye Par Sitare Bo Raha Huun,
Janam-Din Hai Akela Ro Raha Hun.

मै तकिये पर सितारे बो रहा हूँ,
जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ।

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