mohabbat hai mujhko tumse

कहो न ये कि मोहब्बत है तीरगी से मुझे
डरा दिया है पतंगों ने रौशनी से मुझे

सफ़ीना शौक़ का अब के जो डूब कर उभरा
निकाल ले गया दरिया-ए-बे-ख़ुदी से मुझे

है मेरी आँख में अब तक वही सफ़र का ग़ुबार
मिला जो राह में सहरा-ए-आगही से मुझे

ख़िरद इन्ही से बनाती है रहबरी का मिज़ाज
ये तजरबे जो मयस्सर हैं गुमरही से मुझे

अभी तो पाँव से काँटे निकालता हूँ मैं
अभी निकाल न गुलज़ार-ए-ज़िंदगी से मुझे

ज़बान-ए-हाल से कहता है नाज़-ए-इश्वा-गरी
हया छुपा न सकी चश्म-ए-मज़हरी से मुझे

बराए दाद-ए-सुख़न कासा-ए-सवाल हो दिल
ख़ुदा बचाए ‘जमील’ इस गदागरी से मुझे

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tera husn bhi hai bahana

तिरा हुस्न भी बहाना मिरा इश्क़ भी बहाना
ये लतीफ़ इस्तिआरे न समझ सका ज़माना

मैं निसार-ए-दस्त-ए-नाज़ुक जो उठाए नाज़िशाना
कि सँवर गईं ये ज़ुल्फ़ें तो सँवर गया ज़माना

तिरी ज़िंदगी तबस्सुम मिरी ज़िंदगी तलातुम
मिरी ज़िंदगी हक़ीक़त तिरी ज़िंदगी फ़साना

तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म ने नए सिलसिले निकाले
मिरी सीना-चाकियों से जो बना मिज़ाज-ए-शाना

तिरा नाज़-ए-किब्रियाई भी मक़ाम-ए-ग़ौर में है
कि घटा दिया है सज्दों ने वक़ार-ए-आस्ताना

मैं दरून-ए-ख़ाना आ कर भी लिए हूँ दाग़-ए-सज्दा
है अभी मिरी जबीं पर असर-ए-बरून-ए-ख़ाना

कभी राह मैं ने बदली तो ज़मीं का रक़्स बदला
कभी साँस ली ठहर कर तो ठहर गया ज़माना

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koi to sakl mohabbat me hai

कोई तो शक्ल मोहब्बत में साज़गार आए
हँसी नहीं है तो रोने से ही क़रार आए

है एक ने’मत-ए-उज़मा ग़म-ए-मोहब्बत भी
मगर ये शर्त कि इंसाँ को साज़गार आए

जुनून-ए-दश्त-पसंदी बताए देता है
गुज़ारनी थी जो घर में वो हम गुज़ार आए

गुज़ारनी है मुझे उम्र तेरे क़दमों में
मुझे न क्यूँ तिरे वा’दों पे ए’तिबार आए

तुम्हारी बज़्म से आ कर वही ख़याल रहा
हम एक बार गए तुम हज़ार बार आए

निगाह-ए-दोस्त कोई और बात है वर्ना
तू बे-क़रार करे और मुझे क़रार आए

है मुतमइन भी तो किस किस उमीद-ओ-बीम के साथ
वो ना-मुराद जिसे लुत्फ़-ए-इंतिज़ार आए

बता गई है जो मुझ को वो बे-क़रार निगाह
न कह सकूँगा अगर आज भी क़रार आए

ये इम्तियाज़ है ‘ग़ालिब’ के बा’द ‘आली’ का
कि जिस पे आप मरे हैं उसे भी मार आए

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mujhe tera intizaar hai

बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतिज़ार है आ जा
और अब तो ख़ास वही मौसम-ए-बहार है आ जा

कहाँ ये होश कि उस्लूब-ए-ताज़ा से तुझे लिखूँ
कि रूह तेरे लिए सख़्त बे-क़रार है आ जा

गुज़र चली हैं बहुत ग़म की शोरिशें भी हदों से
मगर अभी तो तिरा सब पे इख़्तियार है आ जा

वो तेरी याद कि अब तक सुकून-ए-क़ल्ब-ए-तपाँ थी
तिरी क़सम है कि अब वो भी नागवार है आ जा

ग़ज़ल के शिकवे ग़ज़ल के मुआ’मलात जुदा हैं
मिरी ही तरह से तो भी वफ़ा-शिआ’र है आ जा

बदल रहा हो ज़माना मगर जहान-ए-तमन्ना
तिरे लिए तो अबद तक भी साज़गार है आ जा

हज़ार तरह के अफ़्कार दिल को रौंद रहे हैं
मुक़ाबले में तिरे रंज-ए-रोज़गार है आ जा

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haqiqt ko fasana bana dala

हक़ीक़तों को फ़साना बना के भूल गया
मैं तेरे इश्क़ की हर चोट खा के भूल गया

ज़रा ये दूरी-ए-एहसास-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ तो देख
कि मैं तुझे तिरे नज़दीक आ के भूल गया

अब उस से बढ़ के भी वारुफ़्तगी-ए-दिल क्या हो
कि तुझ को ज़ीस्त का हासिल बना के भूल गया

गुमान जिस पे रहा मंज़िलों का इक मुद्दत
वो रहगुज़ार भी मंज़िल में आ के भूल गया

अब ऐसी हैरत-ओ-वारफ़्तगी को क्या कहिए
दुआ को हाथ उठाए उठा के भूल गया

दिल-ओ-जिगर हैं कि गर्मी से पिघले जाते हैं
कोई चराग़-ए-तमन्ना जला के भूल गया

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ye hai meri kab naseebi

वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी

मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है
ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी

इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-‘रूमी’ कभी पेच-ओ-ताब-ए-‘राज़ी’

वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी

न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी

नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी

कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी

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moziza aisa bhi hota hai

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हवा ऐसा भी होता है

सुनाई दे न ख़ुद अपनी सदा ऐसा भी होता है
मियाँ तंहाई का इक सानेहा ऐसा भी होता है

छिड़े हैं तार दिल के ख़ाना-बर्बादी के नग़्मे हैं
हमारे घर में साहिब रत-जगा ऐसा भी होता है

बहुत हस्सास होने से भी शक को राह मिलती है
कहीं अच्छा तो लगता है बुरा ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बाँ पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ाइक़ा ऐसा भी होता है

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meri ek koshish hai pane ki

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए

रेत मेरी उम्र मैं बच्चा निराले मेरे खेल
मैं ने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए

वक़्त होंटों से मिरे वो भी खुरच कर ले गया
इक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए

छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए

देर तक हँसता रहा उन पर हमारा बचपना
तजरबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

मैं ‘ज़फ़र’ ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए

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