ye teri rah me bhaithe hai

यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
तू ने ठोकर जो लगा दी तो मिरा सर निकला

लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
मैं जिसे फूँक कर आया वो मिरा घर निकला

एक वो शख़्स जो फूलों से भरे था दामन
हर कफ़-ए-गुल में छुपाए हुए ख़ंजर निकला

यूँ तो इल्ज़ाम है तूफ़ाँ पे डुबो देने का
तह में दरिया की मगर नाव का लंगर निकला

घर के घर ख़ाक हुए जल के नदी सूख गई
फिर भी उन आँखों में झाँका तो समुंदर निकला

फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जिसे ढूँढ रहा था मिरे अंदर निकला

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samajh saka na koi

समझ सका न कोई राज़-ए-हुस्न बेगाना
जुज़ ईं नियाज़-पसंदी-ए-क़ल्ब-ए-दीवाना

ये चाँदनी ये फ़ज़ा ये हवा-ए-मय-ख़ाना
दवाम हो तो मिले मुझ को एक पैमाना

तिरी निगाह की तौसीफ़ हो रही है मगर
मिरी ही तिश्ना-लबी भर रही है पैमाना

जहाँ पहुँच न सका कोई जज़्बा-ए-मुहतात
वहाँ गया है मिरा ज़ौक़-ए-सरफ़रोशाना

नहीं है सरमद-ओ-मंसूर पर ही ख़त्म जुनूँ
मुझे भी लोगों ने अक्सर कहा है दीवाना

शिकायत-ए-ग़म-ए-दिल को ज़बाँ नहीं खुलती
कि इस निगाह के अंदाज़ हैं करीमाना

तमाम बज़्म में इक हम ख़मोश बैठे हैं
सुना रहे हैं सभी तुझ को तेरा अफ़्साना

यक़ीन रख कि तिरी अंजुमन से हम भी कभी
तिरी ही तरह से गुज़़रेंगे बे-नियाज़ाना

गुज़ारनी है शब-ए-ग़म किसी तरह ऐ दोस्त
न अपनी कोई कहानी न कोई अफ़्साना

न पूछ मुझ से किसी शय की अस्ल ऐ हमदम
कि देखता हूँ मैं आबादियों में वीराना

अजब इ’ताब-ए-मशिय्यत है मुझ पे ऐ ‘आली’
गदा बना के दिया है मिज़ाज शाहाना

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kisi ko naze khirad hai

किसी को नाज़-ए-ख़िरद है किसी को फ़ख़्र-ए-जुनूँ
मैं अपने दिल का फ़साना कहूँ तो किस से कहूँ

न इज़्तिराब में लज़्ज़त न आरज़ू-ए-सुकूँ
कोई कहे कि मैं अब क्या फ़रेब खा के जियूँ

रहेगी फिर न ये कैफ़िय्यत-ए-तलब ऐ दिल
छुपे हुए हैं तो है इश्तियाक़-ए-दीद फ़ुज़ूँ

है आज दिल पे गुमाँ हुस्न-ए-ना-शनासी का
जला चुके जब उसे जल्वा-हा-ए-गूना-गूँ

हो अब भी फ़िक्र में मुश्किल तो याद आते हैं
वो हर अदा में तग़ज़्ज़ुल के सैकड़ों मज़मूँ

तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
उमीद भी न रखूँ ना-उमीद भी न रहूँ

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umr bhar yaad hai

उम्र-भर का याद है बस एक अफ़्साना मुझे
मैं ने पहचाना जिसे उस ने न पहचाना मुझे

अंजुमन की अंजुमन मुझ से मुख़ातब हो गई
आप ने देखा था शायद बे-नियाज़ाना मुझे

पहले दीवाना कहा करते थे लेकिन आज-कल
लोग कहते हैं सरापा तेरा अफ़्साना मुझे

गाहे गाहे ज़िक्र कर लेने से क्या याद आएगा
याद ही रखना मुझे या भूल ही जाना मुझे

ख़्वाब ही देखा है लेकिन हाए किस लज़्ज़त का ख़्वाब
वो मिरे घर तेरा आना और बहलाना मुझे

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saki chaman me aa

साक़ी चमन में आ कि तिरी याद है बहुत
भूले वही हैं जिन की हमें याद है बहुत

दूल्हा तुम्हारा असग़री आज़ाद है बहुत
करता निगोड़ा चौक में बर्बाद है बहुत

मुमकिन नहीं कि हो न अनीस-ए-दिल-ए-हज़ीं
कम-सिन अभी बुआ सितम-ईजाद है बहुत

जाने से उन के घर नहीं उजड़ा फ़क़त मिरा
वीरान ख़ाना-ए-दिल-ए-ना-शाद है बहुत

देखूँ निगोड़ा करता है किस तरह ख़ून-ए-दिल
आज़ुर्दा इन दिनों मुआ जल्लाद है बहुत

ख़ुश हो के सास ने कहा दुल्हन से रश्क-ए-गुल
दम से तुम्हारे घर मिरा आबाद है बहुत

बुलबुल को फ़स्ल-ए-गुल में असीर-ए-क़फ़स किया
ग़ाफ़िल ख़ुदा के ख़ौफ़ से सय्याद है बहुत

तस्वीर उन की खिच न सकी पीर हो गया
शर्मिंदा अपने फ़ेल से बहज़ाद है बहुत

लेती हूँ करवटें बुआ कुंज-ए-मज़ार में
‘मोहसिन’ निगोड़ा क़ब्र में भी याद है बहुत

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mita diya mere saki ne

मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
पिला के मुझ को मय-ए-ला-इलाहा-इल्ला-हू

न मय न शे’र न साक़ी न शोर-ए-चंग-ओ-रबाब
सुकूत-ए-कोह ओ लब-ए-जू व लाला-ए-ख़ुद-रू

गदा-ए-मय-कदा की शान-ए-बे-नियाज़ी देख
पहुँच के चश्मा-ए-हैवाँ पे तोड़ता है सुबू

मिरा सबूचा ग़नीमत है इस ज़माने में
कि ख़ानक़ाह में ख़ाली हैं सूफ़ियों के कदू

मैं नौ-नियाज़ हूँ मुझ से हिजाब ही औला
कि दिल से बढ़ के है मेरी निगाह बे-क़ाबू

अगरचे बहर की मौजों में है मक़ाम इस का
सफ़ा-ए-पाकी-ए-तीनत से है गुहर का वुज़ू

जमील-तर हैं गुल ओ लाला फ़ैज़ से इस के
निगाह-ए-शाइर-ए-रंगीं-नवा में है जादू

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jab ishq sikhata hai

जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही

‘अत्तार’ हो ‘रूमी’ हो ‘राज़ी’ हो ‘ग़ज़ाली’ हो
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही

नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना
कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही

ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही

दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला
हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही

आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही

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tujhe yaad kya nhi hai

तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना

ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में
न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना

नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना

रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की
कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना

मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना

मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना

तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं
न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना

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