aaj fir rooh me ek burq si hai

आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
दिल की गहराई से रोने की सदा आती है

यूँ चटकती हैं ख़राबात में जैसे कलियाँ
तिश्नगी साग़र-ए-लबरेज़ से टकराती है

शोला-ए-ग़म की लपक और मिरा नाज़ुक सा मिज़ाज
मुझ को फ़ितरत के रवय्ये पे हँसी आती है

मौत इक अम्र-ए-मुसल्लम है तो फिर ऐ साक़ी
रूह क्यूँ ज़ीस्त के आलाम से घबराती है

सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
अब तो रह रह के सितारों को भी नींद आती है

और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ ‘अदम’
हाँ ज़रा नब्ज़ किसी वक़्त ठहर जाती है

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maikada tha chandi thi

मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
इक मुजस्सम बे-ख़ुदी थी मैं न था

इश्क़ जब दम तोड़ता था तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी मैं न था

तूर पर छेड़ा था जिस ने आप को
वो मिरी दीवानगी थी मैं न था

वो हसीं बैठा था जब मेरे क़रीब
लज़्ज़त-हम-सायगी थी मैं न था

मय-कदे के मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तिश्नगी थी मैं न था

थी हक़ीक़त कुछ मिरी तो इस क़दर
उस हसीं की दिल-लगी थी मैं न था

मैं और उस ग़ुंचा-दहन की आरज़ू
आरज़ू की सादगी थी मैं न था

जिस ने मह-पारों के दिल पिघला दिए
वो तो मेरी शाएरी थी मैं न था

गेसुओं के साए में आराम-कश
सर-बरहना ज़िंदगी थी मैं न था

दैर ओ काबा में ‘अदम’ हैरत-फ़रोश
दो-जहाँ की बद-ज़नी थी मैं न था

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lehra ke jhoom jhoom ke la

लहरा के झूम झूम के ला मुस्कुरा के ला
फूलों के रस में चाँद की किरनें मिला के ला

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला

साग़र-शिकन है शैख़-ए-बला-नोश की नज़र
शीशे को ज़ेर-ए-दामन-ए-रंगीं छुपा के ला

क्यूँ जा रही है रूठ के रंगीनी-ए-बहार
जा एक मर्तबा उसे फिर वर्ग़ला के ला

देखी नहीं है तू ने कभी ज़िंदगी की लहर
अच्छा तो जा ‘अदम’ की सुराही उठा के ला

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toti hai meri need magar tumko kya

टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या

तुम मौज मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या

औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या

अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या

ले जाएँ मुझ को माल-ए-ग़नीमत के साथ अदू
तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या

तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या

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Tamasa-e-dair-o-haram dekhte hai

तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
तुझे हर बहाने से हम देखते हैं

हमारी तरफ़ अब वो कम देखते हैं
वो नज़रें नहीं जिन को हम देखते हैं

ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं

फिरे बुत-कदे से तो ऐ अहल-ए-काबा
फिर आ कर तुम्हारे क़दम देखते हैं

हमें चश्म-ए-बीना दिखाती है सब कुछ
वो अंधे हैं जो जाम-ए-जम देखते हैं

न ईमा-ए-ख़्वाहिश न इज़हार-ए-मतलब
मिरे मुँह को अहल-ए-करम देखते हैं

कभी तोड़ते हैं वो ख़ंजर को अपने
कभी नब्ज़-ए-बिस्मिल में दम देखते हैं

ग़नीमत है चश्म-ए-तग़ाफ़ुल भी उन की
बहुत देखते हैं जो कम देखते हैं

ग़रज़ क्या कि समझें मिरे ख़त का मज़मूँ
वो उनवान ओ तर्ज़-ए-रक़म देखते हैं

सलामत रहे दिल बुरा है कि अच्छा
हज़ारों में ये एक दम देखते हैं

रहा कौन महफ़िल में अब आने वाला
वो चारों तरफ़ दम-ब-दम देखते हैं

उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं

उन्हें क्यूँ न हो दिलरुबाई से नफ़रत
कि हर दिल में वो ग़म अलम देखते हैं

निगहबाँ से भी क्या हुई बद-गुमानी
अब उस को तिरे साथ कम देखते हैं

हमें ‘दाग़’ क्या कम है ये सरफ़राज़ी
कि शाह-ए-दकन के क़दम देखते हैं

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nigahe dar pe lagi hai

निगाहें दर पे लगी हैं उदास बैठे हैं
किसी के आने की हम ले के आस बैठे हैं

नज़र उठा के कोई हम को देखता भी नहीं
अगरचे बज़्म में सब रू-शनास बैठे हैं

इलाही क्या मिरी रुख़्सत का वक़्त आ पहुँचा
ये चारासाज़ मिरे क्यूँ उदास बैठे हैं

इलाही क्यूँ तन-ए-मुर्दा में जाँ नहीं आती
वो बे-नक़ाब हैं तुर्बत के पास बैठे हैं

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jab ashq teri yaad me aaye

जब अश्क तिरी याद में आँखों से ढले हैं
तारों के दिए सूरत-ए-परवाना जले हैं

सौ बार बसाई है शब-ए-वस्ल की जन्नत
सौ बार ग़म-ए-हिज्र के शोलों में जले हैं

हर आन उमंगों के बदलते रहे तेवर
हर आन मोहब्बत में नई राह चले हैं

महताब से चेहरे थे सितारों सी निगाहें
हम लोग इन्ही चाँद सितारों में पले हैं

नोचे हैं कभी हम ने हवादिस के गरेबाँ
नाकामि-ए-कोशिश पे कभी हाथ मले हैं

तारीक फ़ज़ाओं के उभरते रहे तूफ़ाँ
फिर भी तिरी यादों के दिए ख़ूब जले हैं

क्या जानिए ये रिंद बुरे हैं कि भले हैं
साक़ी की निगाहों के इशारों पे चले हैं

महसूस ये होता है कि दुनिया की बहारें
उस गुल-कदा-ए-नाज़ के साए के तले हैं

यूँही तो दिल-आवेज़ नहीं शेर-ए-‘तबस्सुम’
ये नक़्श तिरे हुस्न के साँचे में ढले हैं

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tujh ko aate hi nhi chupane ke andaz

तुझ को आते ही नहीं छुपने के अंदाज़ अभी
मिरे सीने में है लर्ज़ां तिरी आवाज़ अभी

उस ने देखा ही नहीं दर्द का आग़ाज़ अभी
इश्क़ को अपनी तमन्नाओं पे है नाज़ अभी

तुझ को मंज़िल पे पहुँचने का है दावा हमदम
मुझ को अंजाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी

किस क़दर गोश-बर-आवाज़ है ख़ामोशी-ए-शब
कोई नाला कि है फ़रियाद का दर बाज़ अभी

मिरे चेहरे की हँसी रंग-ए-शिकस्ता मेरा
तेरे अश्कों में तबस्सुम का है अंदाज़ अभी

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begana mai jo badi ho

बेगमा मैं जो बड़ी हूँ तो भला तुझ को क्या
पहने पोशाक ज़री हूँ तो भला तुझ को क्या

तू तो ओकटी नहीं जाएगी मिरे ऐबों में
अरी मैं ऐब-भरी हूँ तो भला तुझ को क्या

अपनी बिजली की सी तो छब की ख़बर ले बाजी
गर्म मैं गो कि ज़री हूँ तो भला तुझ को क्या

किसी का बाग़ तो लूटा नहीं है मैं अपनी
गोद फूलों से भरी हूँ तो भला तुझ को क्या

नए धानों की सी खेती की तरह से ‘इंशा’
डह-डही और हरी हूँ तो भला तुझ को क्या

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mai is ummed pe duba ho

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इस के बा’द मिरा इम्तिहान क्या लेगा

ये एक मेला है वा’दा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता ‘वसीम’
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

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