Tabiyat in deno meri kya hai

तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है

सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है
ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है

क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है

वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है

वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शम्अ’ लेकिन रौशनी कम होती जाती है

वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई
वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है

वही है ज़िंदगी लेकिन ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है

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Yaar ki Sari Rasme Chali Gai Milne me

गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
पड़ा जिस दिन से दिल बस में तिरे और दिल के हम बस में

कभी मिलना कभी रहना अलग मानिंद मिज़्गाँ के
तमाशा कज-सिरिश्तों का है कुछ इख़्लास के बस में

तवक़्क़ो’ क्या हो जीने की तिरे बीमार-ए-हिज्राँ के
न जुम्बिश नब्ज़ में जिस की न गर्मी जिस के मलमस में

दिखाए चीरा-दस्ती आह बालादस्त गर अपनी
तो मारे हाथ दामान-ए-क़यामत चर्ख़-ए-अतलस में

जो है गोशा-नशीं तेरे ख़याल-ए-मस्त-ए-अबरू में
वो है बैतुस-सनम में भी तो है बैतुल-मुक़द्दस में

करे लब-आश्ना हर्फ़-ए-शिकायत से कहाँ ये दम
तिरे महज़ून-ए-बे-दम में तिरे मफ़्तून-ए-बेकस में

हवा-ए-कू-ए-जानाँ ले उड़े उस को तअ’ज्जुब क्या
तन-ए-लाग़र में है जाँ इस तरह जिस तरह बू ख़स में

मुझे हो किस तरह क़ौल-ओ-क़सम का ए’तिबार उन के
हज़ारों दे चुके वो क़ौल लाखों खा चुके क़स्में

हुए सब जम्अ’ मज़मूँ ‘ज़ौक़’ दीवान-ए-दो-आलम के
हवास-ए-ख़मसा हैं इंसाँ के वो बंद-ए-मुख़म्मस में

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saki tere maikhane ko aaye the hum

दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़्सोस पैमाने को हम

मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम

क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम

हम को फँसना था क़फ़स में क्या गिला सय्याद का
बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम

ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम

बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम

क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ऐ ‘नज़ीर’
ताकि शादी-मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम

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jab dil me tere gum se hasrat bana dali

जब दिल में तिरे ग़म ने हसरत की बिना डाली
दुनिया मिरी राहत की क़िस्मत ने मिटा डाली

अब बर्क़-ए-नशेमन को हर शाख़ से क्या मतलब
जिस शाख़ को ताका था वो शाख़ जला डाली

इज़हार-ए-मोहब्बत की हसरत को ख़ुदा समझे
हम ने ये कहानी भी सौ बार सुना डाली

जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते
क्या तुम ने मोहब्बत की हर रस्म उठा डाली

जीने में न अब ‘फ़ानी’ मरने में शुमार अपना
मातम की बिसात उस ने क्या कह के उठा डाली

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Rang-e-sharab se meri niyat badal gai

रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
वाइज़ की बात रह गई साक़ी की चल गई

तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
जल्वा बुतों का देख के निय्यत बदल गई

मछली ने ढील पाई है लुक़्मे पे शाद है
सय्याद मुतमइन है कि काँटा निगल गई

चमका तिरा जमाल जो महफ़िल में वक़्त-ए-शाम
परवाना बे-क़रार हुआ शम्अ’ जल गई

उक़्बा की बाज़-पुर्स का जाता रहा ख़याल
दुनिया की लज़्ज़तों में तबीअ’त बहल गई

हसरत बहुत तरक़्क़ी-ए-दुख़्तर की थी उन्हें
पर्दा जो उठ गया तो वो आख़िर निकल गई

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kabhi tha naaz amane ko

कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी
पर अब उरूज वो इल्म-ओ-कमाल-ओ-फ़न में नहीं

रगों में ख़ूँ है वही दिल वही जिगर है वही
वही ज़बाँ है मगर वो असर सुख़न में नहीं

वही है बज़्म वही शम्अ’ है वही फ़ानूस
फ़िदा-ए-बज़्म वो परवाने अंजुमन में नहीं

वही हवा वही कोयल वही पपीहा है
वही चमन है प वो बाग़बाँ चमन में नहीं

ग़ुरूर-ए-जेहल ने हिन्दोस्ताँ को लूट लिया
ब-जुज़ निफ़ाक़ के अब ख़ाक भी वतन में नहीं

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jo batan se nikal gya bo dil se gya

पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया

ठहरें कभी कजों में न दम भर भी रास्त-रौ
आया कमाँ में तीर तो सन से निकल गया

ख़िलअ’त पहन के आने की थी घर में आरज़ू
ये हौसला भी गोर-ओ-कफ़न से निकल गया

पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया

मुर्ग़ान-ए-बाग़ तुम को मुबारक हो सैर-ए-गुल
काँटा था एक मैं सो चमन से निकल गया

क्या रंग तेरी ज़ुल्फ़ की बू ने उड़ा दिया
काफ़ूर हो के मुश्क ख़ुतन से निकल गया

प्यासा हूँ इस क़दर कि मिरा दिल जो गिर पड़ा
पानी उबल के चाह-ए-ज़क़न से निकल गया

सारा जहान नाम के पीछे तबाह है
इंसान किया अक़ीक़-ए-यमन से निकल गया

काँटों ने भी न दामन-ए-गुलचीं पकड़ लिया
बुलबुल को ज़ब्ह कर के चमन से निकल गया

क्या शौक़ था जो याद सग-ए-यार ने किया
हर उस्तुख़्वाँ तड़प के बदन से निकल गया

ऐ सब्ज़ा रंग-ए-ख़त भी बना अब तो बोसा दे
बेगाना था जो सब्ज़ा चमन से निकल गया

मंज़ूर इश्क़ को जो हुआ औज-ए-हुस्न पर
कुमरी का नाला सर्व-ए-चमन से निकल गया

मद्द-ए-नज़र रही हमें ऐसी रज़ा-ए-दोस्त
काटी ज़बाँ जो शिकवा दहन से निकल गया

ताऊस ने दिखाए जो अपने बदन के दाग़
रोता हुआ सहाब चमन से निकल गया

सहरा में जब हुई मुझे ख़ुश-चश्मों की तलाश
कोसों मैं आहुवान-ए-ख़ुतन से निकल गया

ख़ंजर खिंचा जो म्यान से चमका मियान-ए-सफ़
जौहर खुले जो मर्द वतन से निकल गया

में शेर पढ़ के बज़्म से किया उठ गया ‘अमीर’
बुलबुल चहक के सेहन-ए-चमन से निकल गया

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sarakti jaye hai nakab ahishta ahishta

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंटों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटें ‘अमीर’ और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता

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dil seene me hai dildaar kaha hai

दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
कुइ मुझ को बता दो वो मिरा यार किधर है

हम कब के चमन-ज़ार में बेहोश पड़े हैं
मालूम नहीं गुल किधर और ख़ार किधर है

उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
इतना तो बता दो दर-ए-गुलज़ार किधर है

दिल छीनने वाले कोई घर बैठ रहें हैं
पूछें हैं यही रस्ता-ए-बाज़ार किधर है

देखा मुझे कल उस ने तो ग़ैरों से ये बोला
लाओ भी शिताबी मिरी तलवार किधर है

याँ हो रहा है सीना मिरा आगू ही छलनी
ढूँडे है कहाँ तीर को सोफ़ार किधर है

अहवाल निपट तंग है बीमार का तेरे
इस वक़्त तू ऐ आईना-रुख़्सार किधर है

शीरीं-सुख़नाँ सब ही शुक्र बेचें हैं लेकिन
इंसाफ़ करो जोश-ए-ख़रीदार किधर है

बरसों न मिले उस से तो उस शोख़ ने हम को
पूछा न कभी ‘मुसहफ़ी’-ए-ज़ार किधर है

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maar kar teer bo dilbar gya

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे
कह दो हम से न कोई दे के निशानी माँगे

ऐ सनम देख के हर दम की तिरी कम-सुख़नी
मौत घबरा के न क्यूँ ये ख़फ़क़ानी माँगे

ख़ाक से तिश्ना-ए-दीदार के सब्ज़ा जो उठे
तो ज़बाँ अपनी निकाले हुए पानी माँगे

मार-ए-पेचाँ तो बला हैगा मगर तू ऐ ज़ुल्फ़
है वो काफ़िर कि न काटा तिरा पानी माँगे

दहन-ए-यार हो और माँगे किसी से दिल को
वो जो माँगे तो ब-अंदाज़-ए-निहानी माँगे

दिल मिरा बोसा-ब-पैग़ाम नहीं है हमदम
यार लेता है तो ले अपनी ज़बानी माँगे

जल्वा उस आलम-ए-मअ’नी का जो देखे ऐ ‘ज़ौक़’
लुत्फ़-ए-अल्फ़ाज़ न बे-हुस्न-ए-मआनी माँगे

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