Dil per wafa ka bojh uthate rahe hai hum

दिल पर वफ़ा का बोझ उठाते रहे हैं हम
अपना हर इम्तियाज़ मिटाते रहे हैं हम

मुँह पर जो ये जले हुए दामन की राख है
शो’लों में ज़िंदगी के नहाते रहे हैं हम

इतना न खुल सका कि हवा किस तरफ़ की है
सारे जहाँ की ख़ाक उड़ाते रहे हैं हम

आँखों से दिल तक एक जहान-ए-सुकूत है
सुनते हैं इस दयार से जाते रहे हैं हम

तेरा ख़याल माने-ए-अर्ज़-ए-हुनर हुआ
किस किस तरह से जी को जलाते रहे हैं हम

किस की सदा सुनी थी कि चुप लग गई ‘शहाब’
सातों सुरों का भेद गँवाते रहे हैं हम