Baqt Ka Kafila Aata hai Guar jata Hai

वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है
आदमी अपनी ही मंज़िल में ठहर जाता है

एक बिगड़ी हुई क़िस्मत पे न हँसना ऐ दोस्त
जाने किस वक़्त ये इंसान सँवर जाता है

इस तरफ़ ऐश की शमएँ तो उधर दिल के चराग़
देखना ये है कि परवाना किधर जाता है

जाम-ओ-सहबा की मुझे फ़िक्र नहीं ऐ ग़म-ए-दिल
मेरा पैमाना तो अश्कों ही से भर जाता है

एक रिश्ता भी मोहब्बत का अगर टूट गया
देखते देखते शीराज़ा बिखर जाता है

हाल मेरे लिए है लम्हा-ए-आइंदा ‘नुशूर’
वक़्त शाएर के लिए पहले गुज़र जाता है