fir sar kisi ke dar

फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम
पर्दे फिर आसमाँ के उठाए हुए हैं हम

छाई हुई है इश्क़ की फिर दिल पे बे-ख़ुदी
फिर ज़िंदगी को होश में लाए हुए हैं हम

जिस का हर एक जुज़्व है इक्सीर-ए-ज़िंदगी
फिर ख़ाक में वो जिंस मिलाए हुए हैं हम

हाँ कौन पूछता है ख़ुशी का नहुफ़्ता राज़
फिर ग़म का बार दिल पे उठाए हुए हैं हम

हाँ कौन दर्स-ए-इश्क़-ए-जुनूँ का है ख़्वास्त-गार
आए कि हर सबक़ को भुलाए हुए हैं हम

आए जिसे हो जादा-ए-रिफ़अत की आरज़ू
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम

बैअत को आए जिस को हो तहक़ीक़ का ख़याल
कौन-ओ-मकाँ के राज़ को पाए हुए हैं हम

हस्ती के दाम-ए-सख़्त से उकता गया है कौन
कह दो कि फिर गिरफ़्त में आए हुए हैं हम

हाँ किस के पा-ए-दिल में है ज़ंजीर-ए-आब-ओ-गिल
कह दो कि दाम-ए-ज़ुल्फ़ में आए हुए हैं हम

हाँ किस को जुस्तुजू है नसीम-ए-फ़राग़ की
आसूदगी को आग लगाए हुए हैं हम

हाँ किस को सैर-ए-अर्ज़-ओ-समा का है इश्तियाक़
धूनी फिर उस गली में रमाए हुए हैं हम

जिस पर निसार कौन-ओ-मकाँ की हक़ीक़तें
फिर ‘जोश’ उस फ़रेब में आए हुए हैं हम

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tera ashra mujhe hai

हर हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे
मायूस कर सका न हुजूम-ए-बला मुझे

हर नग़्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम
हर साज़ ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे

हर बात में उन्हीं की ख़ुशी का रहा ख़याल
हर काम से ग़रज़ है उन्हीं की रज़ा मुझे

रहता हूँ ग़र्क़ उन के तसव्वुर में रोज़ ओ शब
मस्ती का पड़ गया है कुछ ऐसा मज़ा मुझे

रखिए न मुझ पे तर्क-ए-मोहब्बत की तोहमतें
जिस का ख़याल तक भी नहीं है रवा मुझे

काफ़ी है उन के पा-ए-हिना-बस्ता का ख़याल
हाथ आई ख़ूब सोज़-ए-जिगर की दवा मुझे

क्या कहते हो कि और लगा लो किसी से दिल
तुम सा नज़र भी आए कोई दूसरा मुझे

बेगाना-ए-अदब किए देती है क्या करूँ
उस महव-ए-नाज़ की निगह-ए-आशना मुझे

उस बे-निशाँ के मिलने की ‘हसरत’ हुई उम्मीद
आब-ए-बक़ा से बढ़ के है ज़हर-ए-फ़ना मुझे

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us bot ke pujari hai

उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों
बिगड़े हैं इसी कुफ़्र में ईमान हज़ारों

दुनिया है कि उन के रुख़ ओ गेसू पे मिटी है
हैरान हज़ारों हैं परेशान हज़ारों

तन्हाई में भी तेरे तसव्वुर की बदौलत
दिल-बस्तगी-ए-ग़म के हैं सामान हज़ारों

ऐ शौक़ तिरी पस्ती-ए-हिम्मत का बुरा हो
मुश्किल हुए जो काम थे आसान हज़ारों

आँखों ने तुझे देख लिया अब उन्हें क्या ग़म
हालाँकि अभी दिल को हैं अरमान हज़ारों

छाने हैं तिरे इश्क़ में आशुफ़्ता-सरी ने
दुनिया-ए-मुसीबत के बयाबान हज़ारों

इक बार था सर गर्दन-ए-‘हसरत’ पे रहेंगे
क़ातिल तिरी शमशीर के एहसान हज़ारों

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Chahat meri nhi hai

चाहत मिरी चाहत ही नहीं आप के नज़दीक
कुछ मेरी हक़ीक़त ही नहीं आप के नज़दीक

कुछ क़द्र तो करते मिरे इज़हार वफ़ा की
शायद ये मोहब्बत ही नहीं आप के नज़दीक

यूँ ग़ैर से बेबाक इशारे सर-ए-महफ़िल
क्या ये मिरी ज़िल्लत ही नहीं आप के नज़दीक

उश्शाक़ पे कुछ हद भी मुक़र्रर है सितम की
या उस की निहायत ही नहीं आप के नज़दीक

अगली सी न रातें हैं न घातें हैं न बातें
क्या अब मैं वो ‘हसरत’ ही नहीं आप के नज़दीक

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bhulata lakh ho

भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्क-ए-उल्फ़त पर वो क्यूँकर याद आते हैं

न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़्साने
शराब-ए-बे-ख़ुदी के मुझ को साग़र याद आते हैं

रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ऐ वाए-नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद-फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

हक़ीक़त खुल गई ‘हसरत’ तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़ कर याद आते हैं

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ghar jab bana liya

घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बग़ैर

कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूँ किसी के दिल की मैं क्यूँकर कहे बग़ैर

काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर

जी में ही कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाए या रहे न रहें पर कहे बग़ैर

छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर

मक़्सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तुगू में काम
चलता नहीं है दशना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर

हर चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर

बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर

‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर

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dariya me fana ho jana

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना

दिल हुआ कशमकश-ए-चारा-ए-ज़हमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक़दे का वा हो जाना

अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना

ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना

है मुझे अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते ग़म-ए-फ़ुर्क़त में फ़ना हो जाना

गर नहीं निकहत-ए-गुल को तिरे कूचे की हवस
क्यूँ है गर्द-ए-रह-ए-जौलान-ए-सबा हो जाना

बख़्शे है जल्वा-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा ‘ग़ालिब’
चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना

ता कि तुझ पर खुले एजाज़-ए-हवा-ए-सैक़ल
देख बरसात में सब्ज़ आइने का हो जाना

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bhaut raha hai kabhi

बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी

उरूस-ए-दहर को आया था प्यार हम पर भी
ये बेसवा थी किसी शब निसार हम पर भी

बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर
हुआ किए हैं जवाहिर निसार हम पर भी

अदू को भी जो बनाया है तुम ने महरम-ए-राज़
तो फ़ख़्र क्या जो हुआ ए’तिबार हम पर भी

ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उन की ज़बाँ
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी

हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो ग़ज़ब
कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी

हमें भी आतिश-ए-उल्फ़त जला चुकी ‘अकबर’
हराम हो गई दोज़ख़ की नार हम पर भी

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haya se sar jhuk gya

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना

ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है
मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना

बलाएँ लेते हैं उन की हम उन पर जान देते हैं
ये सौदा दीद के क़ाबिल है क्या लेना है क्या देना

ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना

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dard to maujood hai

दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो

झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम
बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो

वज्द में लाते हैं मुझ को बुलबुलों के ज़मज़मे
आप के नज़दीक बा-मअ’नी सदा हो या न हो

कर दिया है ज़िंदगी ने बज़्म-ए-हस्ती में शरीक
उस का कुछ मक़्सूद कोई मुद्दआ हो या न हो

क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं
इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो

मौलवी साहिब न छोड़ेंगे ख़ुदा गो बख़्श दे
घेर ही लेंगे पुलिस वाले सज़ा हो या न हो

मिमबरी से आप पर तो वार्निश हो जाएगी
क़ौम की हालत में कुछ इस से जिला हो या न हो

मो’तरिज़ क्यूँ हो अगर समझे तुम्हें सय्याद दिल
ऐसे गेसू हूँ तो शुबह दाम का हो या न हो

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