khird ne mujhko ata ki hai

ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
सिखाई इश्क़ ने मुझ को हदीस-ए-रिंदाना

न बादा है न सुराही न दौर-ए-पैमाना
फ़क़त निगाह से रंगीं है बज़्म-ए-जानाना

मिरी नवा-ए-परेशाँ को शाइरी न समझ
कि मैं हूँ महरम-ए-राज़-ए-दुरून-ए-मय-ख़ाना

कली को देख कि है तिश्ना-ए-नसीम-ए-सहर
इसी में है मिरे दिल का तमाम अफ़्साना

कोई बताए मुझे ये ग़याब है कि हुज़ूर
सब आश्ना हैं यहाँ एक मैं हूँ बेगाना

फ़रंग में कोई दिन और भी ठहर जाऊँ
मिरे जुनूँ को संभाले अगर ये वीराना

मक़ाम-ए-अक़्ल से आसाँ गुज़र गया ‘इक़बाल’
मक़ाम-ए-शौक़ में खोया गया वो फ़रज़ाना

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ishq ko akal ne diwana banaya

इश्क़ ने अक़्ल को दीवाना बना रक्खा है
ज़ुल्फ़-ए-अंजाम की उलझन में फँसा रक्खा है

उठ के बालीं से मिरे दफ़्न की तदबीर करो
नब्ज़ क्या देखते हो नब्ज़ में क्या रक्खा है

मेरी क़िस्मत के नविश्ते को मिटा दे कोई
मुझ को क़िस्मत के नविश्ते ने मिटा रक्खा है

आप बेताब-ए-नुमाइश न करें जल्वों को
हम ने दीदार क़यामत पे उठा रक्खा है

वो न आए न सही मौत तो आएगी ‘हफ़ीज़’
सब्र कर सब्र तिरा काम हुआ रक्खा है

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jaha katre ko tarsaya gya

जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ
वहीं डूबा हुआ पाया गया हूँ

ब-हाल-ए-गुमरही पाया गया हूँ
हरम से दैर में लाया गया हूँ

बला काफ़ी न थी इक ज़िंदगी की
दोबारा याद फ़रमाया गया हूँ

ब-रंग-ए-लाला-ए-वीराना बेकार
खिलाया और मुरझाया गया हूँ

अगरचे अब्र-ए-गौहर-बार हूँ मैं
मगर आँखों से बरसाया गया हूँ

सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ

फ़रिश्ते को न मैं शैतान समझा
नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ

कोई सनअत नहीं मुझ में तो फिर क्यूँ
नुमाइश-गाह में लाया गया हूँ

ब-क़ौल-ए-बरहमन क़हर-ए-ख़ुदा हूँ
बुतों के हुस्न पर ढाया गया हूँ

मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है
सुना है मैं कहीं पाया गया हूँ

‘हफ़ीज़’ अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ

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tere khayal ke diwar-o-dar

तेरे ख़याल के दीवार-ओ-दर बनाते हैं
हम अपने घर में भी तेरा ही घर बनाते हैं

बजाए यौम-ए-मलामत रखा है जश्न मिरा
मिरे भी दोस्त मुझे किस क़दर बनाते हैं

बिखेरते रहो सहरा में बीज उल्फ़त के
कि बीज ही तो उभर कर शजर बनाते हैं

बस अब हिकायत-ए-मज़दूरी-ए-वफ़ा न बना
वो घर उन्हें नहीं मिलते जो घर बनाते हैं

तिरा भी नाम छपा वज्ह-ए-मर्ग-ए-आशिक़ में
ये देख बे-ख़बरे यूँ ख़बर बनाते हैं

वो क्या ख़ुदा की परस्तिश करेंगे मेरी तरह
जो एक बुत भी बहुत सोच कर बनाते हैं

कहा ये किस ने कि है क़स्र-ए-इश्क़ रहन-ए-शबाब
बनाने वाले इसे उम्र-भर बनाते हैं

तू आए तो तिरी कारी-गरी की लाज रहे
हम आज दश्त में रह कर भी घर बनाते हैं

मिली न फ़ुर्सत-ए-आराइश-ए-बयाबाँ भी
कि हम यहाँ भी तिरे बाम-ओ-दर बनाते हैं

अदू हवाओ कराची के लोग हारे नहीं
जो घर गिराओ वो बार-ए-दिगर बनाते हैं

अबु-ज़बी में हमेशा नई ग़ज़ल ‘आली’
ये लोग ही तो तुझे मो’तबर बनाते हैं

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mai sakde tujhpe ho

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रूठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तम्हीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मिरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
कि इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद ‘जमील’
अजब नहीं कि बदल जाए रुत ज़माने की

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badal jate hai dil

बदल जाते हैं दिल हालात जब करवट बदलते हैं
मोहब्बत के तसव्वुर भी नए साँचों में ढलते हैं

तबस्सुम जब किसी का रूह में तहलील होता है
तो दिल की बाँसुरी से नित नए नग़्मे निकलते हैं

मोहब्बत जिन के दिल की धड़कनों को तेज़ रखती है
वो अक्सर वक़्त की रफ़्तार से आगे भी चलते हैं

उजाले के पुजारी मुज़्महिल क्यूँ हैं अंधेरे से
कि ये तारे निगलते हैं तो सूरज भी उगलते हैं

इन्ही हैरत-ज़दा आँखों से देखे हैं वो आँसू भी
जो अक्सर धूप में मेहनत की पेशानी से ढलते हैं

मोहब्बत तो तलब की राह में इक ऐसी ठोकर है
कि जिस से ज़िंदगी की रेत में ज़मज़म उबलते हैं

ग़ुबार-ए-कारवाँ हैं वो न पूछो इज़्तिराब उन का
कभी आगे भी चलते हैं कभी पीछे भी चलते हैं

दिलों के नाख़ुदा उठ कर सँभालें कश्तियाँ अपनी
बहुत से ऐसे तूफ़ाँ ‘मज़हरी’ के दिल में पलते हैं

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