Tujh ko dekha nhi fir bhi sazde kiye

तुम यूँ ही समझना कि फ़ना मेरे लिए है
पर ग़ैब से सामान-ए-बक़ा मेरे लिए है

पैग़ाम मिला था जो हुसैन-इब्न-ए-अली को
ख़ुश हूँ वही पैग़ाम-ए-क़ज़ा मेरे लिए है

ये हूर-ए-बहिश्ती की तरफ़ से है बुलावा
लब्बैक कि मक़्तल का सिला मेरे लिए है

क्यूँ जान न दूँ ग़म में तिरे जब कि अभी से
मातम ये ज़माने में बपा मेरे लिए है

मैं खो के तिरी राह में सब दौलत-ए-दुनिया
समझा कि कुछ इस से भी सिवा मेरे लिए है

तौहीद तो ये है कि ख़ुदा हश्र में कह दे
ये बंदा दो-आलम से ख़फ़ा मेरे लिए है

सुर्ख़ी में नहीं दस्त-ए-हिना-बस्ता भी कुछ कम
पर शोख़ी-ए-ख़ून-ए-शोहदा मेरे लिए है

राहिल हूँ मुसलमान ब-साद-नारा-ए-तकबीर
ये क़ाफ़िला ये बाँग-ए-दरा मेरे लिए है

इनआ’म का उक़्बा के तो क्या पूछना लेकिन
दुनिया में भी ईमाँ का सिला मेरे लिए है

क्यूँ ऐसे नबी पर न फ़िदा हूँ कि जो फ़रमाए
अच्छे तो सभी के हैं बुरा मेरे लिए है

ऐ शाफ़ा-ए-महशर जो करे तू न शफ़ाअत
फिर कौन वहाँ तेरे सिवा मेरे लिए है

अल्लाह के रस्ते ही में मौत आए मसीहा
इक्सीर यही एक दवा मेरे लिए है

ऐ चारागरो चारागरी की नहीं हाजत
ये दर्द ही दारु-ए-शिफ़ा मेरे लिए है

क्या डर है जो हो सारी ख़ुदाई भी मुख़ालिफ़
काफ़ी है अगर एक ख़ुदा मेरे लिए है

जो सोहबत-ए-अग़्यार में इस दर्जा हो बेबाक
उस शोख़ की सब शर्म-ओ-हया मेरे लिए है

है ज़ुल्म तिरा आम बहुत फिर भी सितमगर
मख़्सूस ये अंदाज़-ए-जफ़ा मेरे लिए है

हैं यूँ तो फ़िदा अब्र-ए-सियह पर सभी मय-कश
पर आज की घनघोर घटा मेरे लिए है

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Ek saal aur beet gya uske bina

पिछले बरस तुम साथ थे मेरे और दिसम्बर था
महके हुए दिन-रात थे मेरे और दिसम्बर था

चाँदनी-रात थी सर्द हवा से खिड़की बजती थी
उन हाथों में हाथ थे मेरे और दिसम्बर था

बारिश की बूंदों से दिल पे दस्तक होती थी
सब मौसम बरसात थे मेरे और दिसम्बर था

भीगी ज़ुल्फ़ें भीगा आँचल नींद थी आँखों में
कुछ ऐसे हालात थे मेरे और दिसम्बर था

धीरे धीरे भड़क रही थी आतिश-दान की आग
बहके हुए जज़्बात थे मेरे और दिसम्बर था

प्यार भरी नज़रों से ‘फ़रह’ जब उस ने देखा था
बस वो ही लम्हात थे मेरे और दिसम्बर था

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Hai Dil Me ek Baat

है दिल में एक बात जिसे दर-ब-दर कहें
हर चंद उस में जान भी जाए मगर कहें

मश्शात-गान-ए-काकुल-ए-शम्अ’-ख़याल सब
किस को हरीफ़-ए-जल्वा-ए-बर्क़-ए-नज़र कहें

परछाइयाँ भी छोड़ गईं बे-कसी में साथ
अब ऐ शब-ए-हयात किसे हम-सफ़र कहें

फैले ग़ुबार-ए-रंग-ए-दरूँ तो सवाद-ए-शाम
फूटे लहू तो मौज-ए-ख़िराम-ए-सहर कहें

जुज़ हर्फ़-ए-शौक़ किस को कहें गुलशन-ए-समा
जुज़ नक़्श-ए-नाज़ किस को नशीद-ए-नज़र कहें

टोको उन्हें न लग़्ज़िश-ए-गुफ़्तार देख कर
ये लोग वो हैं जिन को ख़ुदा-ए-हुनर कहें

‘उर्फ़ी’ गदा-ए-शहर की सूरत अगर मिले
इक़्लीम-ए-शाइरी का उसे ताजवर कहें

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Ab dil mar chuka hai

दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो
या हँस पड़ो या हाथ उठा कर दुआ करो

अब हुस्न के मिज़ाज से वाक़िफ़ हुआ हूँ मैं
इक भूल थी जो तुम से कहा था वफ़ा करो

दिल भी सनम-परस्त नज़र भी सनम-परस्त
किस की अदा सहो तो किसे रहनुमा करो

जिस से हुजूम-ए-ग़ैर में होती हैं चश्मकें
उस अजनबी निगाह से भी आश्ना करो

इक सोज़ इक धुआँ है पस-ए-पर्दा-ए-जमाल
तुम लाख शम-ए-बज़्म-ए-रक़ीबाँ बना करो

क़ाएम उसी की ज़ात से है रब्त-ए-ज़िंदगी
ऐ दोस्त एहतिराम-ए-दिल-ए-मुब्तला करो

तक़रीब-ए-इश्क़ है ये दम-ए-वापसीं नहीं
तुम जाओ अपना फ़र्ज़-ए-तग़ाफ़ुल अदा करो

वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ ‘ज़हीर’
जाओ मगर क़रीब-ए-रग-ए-जाँ रहा करो

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Na tu mujhko mila

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुज को वो दिमाग़ ओ दिल रहा है

ये दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है
कहाँ इस को दिमाग़ ओ दिल रहा है

ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है

नहीं आता इसे तकिया पे आराम
ये सर पाँव से तेरे हिल रहा है

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Hain usi shahar ki galiyo me kayam

है उसी शहर की गलियों में क़याम अपना भी
एक तख़्ती पे लिखा रहता है नाम अपना भी

भीगती रहती है दहलीज़ किसी बारिश में
देखते देखते भर जाता है जाम अपना भी

एक तो शाम की बे-मेहर हवा चलती है
एक रहता है तिरे कू में ख़िराम अपना भी

कोई आहट तिरे कूचे में महक उठती है
जाग उठता है तमाशा किसी शाम अपना भी

एक बादल ही नहीं बार-ए-गराँ से नालाँ
सरगिराँ रहता है इक ज़ोर कलाम अपना भी

कोई रस्ता मिरे वीराने में आ जाता है
उसी रस्ते से निकलता है दवाम अपना भी

एक दिल है कि जिसे याद हैं बातें अपनी
एक मय है कि जिसे रास है जाम अपना भी

यूँही लोगों के पस-ओ-पेश में चलते चलते
गर्द उड़ती है बिखर जाता है नाम अपना भी

मुब्तला कार-ए-शब-ओ-रोज़ में है शहर ‘नवेद’
और इसी शहर में गुम है कोई काम अपना भी

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Kis Masti me ab rahta ho

किस मस्ती में अब रहता हूँ
ख़ुद को ख़ुद में ढूँड रहा हूँ

दुनिया में सब से ही जुदा हूँ
आख़िर मैं किस दुनिया का हूँ

मैं तो ख़ुद को भूल चुका हूँ
तुम बतला दो कौन हूँ क्या हूँ

ये भी नहीं है याद मुझे अब
क्यूँ आख़िर रोता रहता हूँ

इक दुनिया है मेरे अंदर
उस में ही मैं घूम रहा हूँ

मुझ को नींद है प्यारी या फिर
उस को भी मैं ही प्यारा हूँ

वो रुख़ अपना फेर चुके हैं
मैं किस को अपना कहता हूँ

इन लफ़्ज़ों ने मंज़िल छीनी
आप चलें मैं अभी आता हूँ

मन तो ख़ुशियाँ बाँट रहा है
मैं क़तरा क़तरा रोता हूँ

ख़ुद का बोझ है कितना ख़ुद पर
कितना ख़ुद को झेल रहा हूँ

मुझ को तुम ‘महताब’ न समझो
शायद मैं उस का साया हूँ

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dekha jo husn-e-yaar tabiyat machal gai

देखा जो हुस्न-ए-यार तबीअत मचल गई
आँखों का था क़ुसूर छुरी दिल पे चल गई

हम तुम मिले न थे तो जुदाई का था मलाल
अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई

साक़ी तिरी शराब जो शीशे में थी पड़ी
साग़र में आ के और भी साँचे में ढल गई

दुश्मन से फिर गई निगह-ए-यार शुक्र है
इक फाँस थी कि दिल से हमारे निकल गई

पीने से कर चुका था मैं तौबा मगर ‘जलील’
बादल का रंग देख के नीयत बदल गई

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Jab ishq sikhata hai adab-e-khud agahi

जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही

‘अत्तार’ हो ‘रूमी’ हो ‘राज़ी’ हो ‘ग़ज़ाली’ हो
कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही

नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना
कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही

ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही

दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला
हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही

आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही

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ab ishq kiya to sabr bhi kar

क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है

आग़ाज़-ए-मुसीबत होता है अपने ही दिल की शामत से
आँखों में फूल खिलाता है तलवों में काँटे बोता है

अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद ज़ाहिर ओ बातिन एक नहीं
लब ऊपर ऊपर हँसते हैं दिल अंदर अंदर रोता है

मल्लाहों को इल्ज़ाम न दो तुम साहिल वाले क्या जानो
ये तूफ़ाँ कौन उठाता है ये कश्ती कौन डुबोता है

क्या जानिए ये क्या खोएगा क्या जानिए ये क्या पाएगा
मंदिर का पुजारी जागता है मस्जिद का नमाज़ी सोता है

ख़ैरात की जन्नत ठुकरा दे है शान यही ख़ुद्दारी की
जन्नत से निकाला था जिस को तू उस आदम का पोता है

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