उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का
Us ka Khiram dekh ke
उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा
ऐ कब्क फिर बहाल भी आया न जाएगा
हम कशतगान-ए-इशक़ हैं अब्रू-ओ-चश्म-ए-यार
सर से हमारे तेग़ का साया न जाएगा
हम रहरवान-ए-राह-ए-फ़ना हैं बिरंग-ए-उम्र
जावेंगे ऐसे खोज भी पाया न जाएगा
फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा
अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर
दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा
अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा
हम बे-ख़ुद उन महफ़िल-ए-तस्वीर अब गए
आइंदा हम से आप में आया न जाएगा
गो बे-सुतूँ को टाल दे आगे से कोहकन
संग-गरान-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा
हम तो गए थे शैख़ को इंसान बूझ कर
पर अब से ख़ानक़ाह में जाया न जाएगा
याद उस की इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
Kabhi ai haqiqat-e-muntazar
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
तू बचा बचा के न रख इसे तिरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में
न कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
Tu abhi rahguzar mein hai
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र
मिस्र ओ हिजाज़ से गुज़र पारस ओ शाम से गुज़र
जिस का अमल है बे-ग़रज़ उस की जज़ा कुछ और है
हूर ओ ख़ियाम से गुज़र बादा-ओ-जाम से गुज़र
गरचे है दिल-कुशा बहुत हुस्न-ए-फ़रंग की बहार
ताएरक-ए-बुलंद-बाम दाना-ओ-दाम से गुज़र
कोह-शिगाफ़ तेरी ज़र्ब तुझ से कुशाद-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब
तेग़-ए-हिलाल की तरह ऐश-ए-नियाम से गुज़र
तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर
ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र
Nigah-e-naz ne parde
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या
दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने
फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या
दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट
तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या
निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने
लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या
वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की
जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या
चराग़-ए-तूर जले आइना-दर-आईना
हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर
निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या
कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद
ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या
तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का
फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या
हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में
चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या
तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना
सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या
नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने
दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या
पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना
तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या
तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी
भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या
‘फ़िराक़’ राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी
बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या