wo chandni raat aur wo mulaqat

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुज़रा है ग़रज़ रात का आलम

जाता हूँ जो मज्लिस में शब उस रश्क-ए-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम

बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तिरी बात का आलम

कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर कि बाहम
होता है अजब उन के इशारात का आलम

दिल उस का न लोटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तिरे गात का आलम

हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम

वो काली घटा और वो बिजली का चमकना
वो मेंह की बौछाड़ें वो बरसात का आलम

देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं कि उस वक़्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम

हम ‘मुसहफ़ी’ क़ाने हैं ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती
है अपने तो नज़दीक मुसावात का आलम