Shah ast Hussain Badshah ast Hussain

शाह अस्त हुसैन बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन दीं’पनाह अस्त हुसैन

जब वादा-ए-तिफ़ली को वफ़ा कर चुके शब्बीर
सर मार्काए करबोबला कर चुके शब्बीर
ख़ंजर के तले शुक्रे खुदा कर चुके शब्बीर
उम्मत के लिए हक़ से दुआ कर चुके शब्बीर
तीरों ने समेटा शहे बेकस का मुसल्ला
थर्राई ज़मीं काँप उठा अरशे मुअल्ला

जो काम था भाई का बहन ने वो संभाला
जलते हुए ख़ैमें से भतीजे को निकाला
दम तोड़ गया सामने हर गोद का पाला
लब तक ना बर आया दिले बेताब से नाला

एलाने कुनाँ नारा-ए-तकबीर थी ज़ैनब
हाँ नाशिर-ए-मक़सदे शब्बीर थी ज़ैनब

चादर जो छिनी साक़िये कौसर को पुकारा
क़ासिम को सदा दी अली अकबर को पुकारा
हर ज़ुल्म पे अब्बास-ए-दिलावर को पुकारा
झूले में लगी आग तो असग़र को पुकारा

नागाह सवार एक नज़र सामने आया
थर्राने लगी जाने दिले फ़ातेमा ज़हरा
बोली के ख़बरदार वहीं रोक ले घोड़ा
रो रो के अभी सोए हैं मासूम तरस खा

कह दे उमर-ए-साद से लिल्लाह ये जाकर
कल दिन के उजाले में हमे लूटना आकर

ज़ैनब की सदा सुनके भी ठहरा ना जब सवार
तब बिन्ते अली आगे बढ़ीं गैज़ में एक बार
चिल्लाई के अये बानीए बेदाद ओ जफ़ाकार
सुनता नहीं तू कहती हूँ मैं जो जिगर अफ़गार

अंजाम ना रुकने का भी अब जान ले ज़ालिम
बेटी हूँ अली की मुझे पहचान ले ज़ालिम

ये कहते हुए डाल दिया हाथ अना पर
अब चाहिए क्या लूट लिया जब के भरा घर
हूँ लाख ग़रीबुल वतनों बेकसो मुज़तर
मजबूर समझना ना मुझे फिर भी सितमगर

क्या ख़ौफ़ मुझे बाज़िद अपने इरादे पे जो तू है
इन बाज़ुओं में फ़ातेमा ज़हरा का लहू है

शब भर मैं तेरे ख़ैमें का दरबान रहूँगा
ता सुबह इसी दश्त में मेहमान रहूँगा

दुखयारी ने जब ग़ौर से चेहरे पे नज़र की
नज़दीके रकाब आई कदम चूम के बोली
बाबा मेरे क्यूँ आन के पहले ना खबर ली
मालूम है क्या आप की औलाद पे गुज़री

ग़म खाने को ये बेकसो लाचार है बाक़ी
मर्दो मे फ़ाक़ात आबिदे बीमार है बाक़ी

जब सर मेरे भाई का कटा आप कहाँ थे
जब ख़ात्मा अकबर का हुआ आप कहाँ थे
बेशीर के जब तीर लगा आप कहाँ थे
जब सर से छिनी मेरी रिदा आप कहाँ थे

ढारस के लिए बेटी की अब आए हो बाबा
सारा मेरा घर लुट गया तब आए हो बाबा

जब मैं हुई आवारा वतन आप कहाँ थे
लूटा गया ज़हरा का चमन आप कहाँ थे
टुकड़े हुआ अब्बास का तन आप कहाँ थे
बाँधी मेरी आदां ने रसन आप कहाँ थे

ज़ैनब से कहा हाशमी हैदर ने ये रो कर
मैं साये के मानिंद तेरे साथ था दिलबर
है पेशे नज़र अब भी क़यामत का वो मंज़र
जिस वक़्त के छिनी गई सर से तेरी चादर

मैं बख़्शिशे उम्मत का सबब देख रहा था
ख़ामोश खड़ा मर्ज़िये रब देख रहा था