Mirza Ghalib Poetry ग़ालिब (غاؔلِب‎ – मने कि “सभ पर हावी”) इनकर उपनाँव भा कलमनाँव रहल आ एकरे अलावा ई अपना शायरी में आपन मूल नाँव असद (मने कि “शेर”) भी इस्तमाल भी करें।

न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
लगाए ख़ाना-ए-आईना में रू-ए-निगार आतिश

फ़रोग़-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-आशिक़
न निकले शम्अ’ के पा से निकाले गर न ख़ार आतिश

शरर है रंग बअ’द इज़हार-ए-ताब-ए-जल्वा-ए-तम्कीं
करे है संग पर ख़ुर्शीद आब-ए-रू-ए-कार आतिश

हम तो मरने के लिए तैयार थे उसे पास आकर हमें क़त्ल करना चाहिए था। पास नहीं आना था तो न आता, उसके पास तरकश भी था, Mirza Ghalib Poetry जिसमें कई तीर थे उसी में से किसी तीर से हमारा काम तमाम किया जा सकता था। मगर उसने ऐसा भी नहीं किया। इस तरह उसने हमारे साथ बेरुख़ी का बरताव किया जो ठीक नहीं था।

हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। Mirza Ghalib Poetry आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है।

पनावे बे-गुदाज़-ए-मोम रब्त-ए-पैकर-आराई
निकाले क्या निहाल-ए-शम्अ बे-तुख़्म-ए-शरार आतिश

ख़याल-ए-दूद था सर-जोश-ए-साैदा-ए-ग़लत-फ़हमी
अगर रखती न ख़ाकिस्तर-नशीनी का ग़ुबार आतिश

हवा-ए-पर-फ़िशानी बर्क़-ए-ख़िर्मन-हा-ए-ख़ातिर है
ब-बाल-ए-शोला-ए-बेताब है परवाना-ज़ार आतिश

धुएँ से आग के इक अब्र-ए-दरिया-बार हो पैदा
‘असद’ हैदर-परस्तों से अगर होवे दो-चार आतिश