Mirza Ghalib Ghazal ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है।
लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का
ज़ियारत-कदा हूँ दिल-आज़ुर्दगाँ का
हमा ना-उमीदी हमा बद-गुमानी
मैं दिल हूँ फ़रेब-ए-वफ़ा-ख़ुर्दगाँ का
शगुफ़्तन कमीं-गाह-ए-तक़रीब-जूई
तसव्वुर हूँ बे-मोजिब आज़ुर्दगाँ का
तुमसे मैं जो अपनी तबाही का शिकवा कर रहा हूँ, वो ठीक नहीं है। मेरी तबाही में मेरी तक़दीर का भी तो हाथ हो सकता है। ये ग़ालिब साहब का अन्दाज़ है Mirza Ghalib Ghazal के तक़दीर की बुराई को भी तक़दीर की ख़ूबी कह रहे हैं। बतौर तंज़ ऎसा कहा गया है।
ग़रीब-ए-सितम-दीदा-ए-बाज़-गश्तन
सुख़न हूँ सुख़न बर लब-आवुर्दगाँ का
सरापा यक-आईना-दार-ए-शिकस्तन
इरादा हूँ यक-आलम-अफ़्सुर्दगाँ का
ब-सूरत तकल्लुफ़ ब-मअ’नी तअस्सुफ़
‘असद’ मैं तबस्सुम हूँ पज़मुर्दगाँ का
ऐसा लगता है तू मेरा पता भूल गया है। याद कर कभी तूने शिकार किया था और उसे अपने नख़्चीर (शिकार रखने का झोला) में रखा था। मैं वही शिकार हूं जिसे तूने शिकार किया था। यानी एक ज़माना था जब हमारे रिश्ते बहुत अच्छे और क़रीबी थे।
क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ इक रंज गरां बारी-ए-ज़ंजीर भी था