कई दिन सुलूक विदाअ’ का मिरे दर पय दिल ज़ार था
कभू दर्द था कभू दाग़ था कभू ज़ख़्म था कभू वार था

दम-ए-सुब्ह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ
कि चराग़ था सो तू दूद था जो पतंग था सो ग़ुबार था

दिल ख़स्ता-लोहू जो हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक
कभू सोज़-ए-सीना से दाग़ था कभू दर्द-ओ-ग़म से फ़िगार था

दिल-ए-मुज़्तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में
न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था

जो निगाह की भी पलक उठा तो हमारे दिल से लहू बहा
कि वहीं वो नावक-ए-बे-ख़ता कसो के कलेजे के पार था

ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़ा जिस के ग़म में है ख़ूँ-चकाँ
वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ कसो वक़्त हम से भी यार था

नहीं ताज़ा-दिल की शिकस्तगी यही दर्द था यही ख़स्तगी
उसे जब से ज़ौक़-ए-शिकार था उसे ज़ख़्म से सरोकार था

कभू जाएगी जो उधर सबा तो ये कहियो उस से कि बेवफ़ा
मगर एक ‘मीर’ शिकस्ता-पा तिरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था