Love Gazal ग़ज़लों का आरंभ अरबी साहित्य की काव्य विधा के रूप में हुआ। अरबी भाषा में कही गयी ग़ज़लें वास्तव में नाम के ही अनुरूप थी अर्थात उसमें औरतों से बातें या उसके बारे में बातें होती थी।
दिन के हंगामों को कीजिए दिल के सन्नाटे में ग़र्क़
रात की ख़ामोशियों को वक़्फ़-ए-मातम कीजिए
दाइमी आलाम का ख़ूगर बना कर रूह को
ना-गहानी हादसों की गर्दनें ख़म कीजिए
दिन के हंगामों को कीजिए दिल के सन्नाटे में ग़र्क़
रात की ख़ामोशियों को वक़्फ़-ए-मातम कीजिए
दाइमी आलाम का ख़ूगर बना कर रूह को
ना-गहानी हादसों की गर्दनें ख़म कीजिए
हिंदी में
फारसी ग़ज़ल में प्रेमी को सादिक (साधक) और प्रेमिका को माबूद (ब्रह्म) का दर्जा मिल गया। Sad Gazal ग़ज़ल को यह रूप देने में सूफ़ी साधकों की निर्णायक भूमिका रही। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।
ये कहकर वक्त ने जिस्म समेट लिया,
तेरा वक्त आएगा मगर बेवक्त नहीं
ये सख्त सलाखें अक्सर टूट जाते हैं,
कानून सख्त हो पर ज़्यादा सख्त नहीं
हुस्न-ए-बे-परवा को दे कर दावत-ए-लुत्फ़-ओ-करम
इश्क़ के ज़ेर-ए-नगीं फिर हर दो आलम कीजिए
दौर-ए-पेशीं की तरह फिर डालिए सीने में ज़ख़्म
ज़ख़्म की लज़्ज़त से फिर तय्यार मरहम कीजिए
सुब्ह से ता शाम रहिए क़िस्सा-ए-आरिज़ में गुम
शाम से ता सुब्ह ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-बरहम कीजिए
Gazal उस समय उत्तर भारत में राजकाज की भाषा फारसी थी Love Gazal इसलिए ग़ज़ल जब उत्तर भारत में आयी तो पुनः उसपर फारसी का प्रभाव बढ़ने लगा। ग़ालिब जैसे उर्दू के श्रेष्ठ ग़ज़लकार भी फारसी ग़ज़लों को ही महत्वपूर्ण मानते रहे और उर्दू ग़जल को फारसी के अनुरूप बनाने की कोशिश करते रहे।
भटका हुआ सा फिरता है दिल किस ख़याल में
क्या जादा-ए-वफ़ा का मुसाफ़िर नहीं हूँ मैं
क्या वसवसा है पा के भी तुम को यक़ीं नहीं
मैं हूँ जहाँ कहीं भी तो आख़िर नहीं हूँ मैं
सौ बार उम्र पाऊँ तो सौ बार जान दूँ
सदक़े हूँ अपनी मौत पे काफ़िर नहीं हूँ मैं